Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 389
________________ ३६० ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ - उत्तराध्ययन सूत्र - उन्नीसवां अध्ययन ★★★★★★★★★★★★★★★ kkkkkkkk कठिन शब्दार्थ - तुहं - तुझे, पियाई - प्रिय, मंसाई - मांस, खंडाइं - टुकड़े टुकड़े किया हुआ, सोल्लगाणि - शूल में पिरो कर पकाया हुआ, खाविओमि - मुझे खिलाया गया, समंसाइं - अपने ही शरीर का मांस, अग्गिवण्णाइ - अग्नि के समान लाल करके। भावार्थ - जिन प्राणियों को इस लोक में मांस अधिक प्रिय होता है उनकी नरक में क्या दशा होती है सो कहते हैं - तुझे मांस अधिक प्रिय था ऐसा याद दिला कर परमाधार्मिक देवों ने मेरे शरीर के मांस को काट कर भूर्ता कर भड़ीता बना कर और अग्नि के समान लाल करके. मुझे अनेक बार खिलाया। तुहं पिया सुरा सीहू, मेरओ य महूणि य। पाइओ मि जलंतीओ, वसाओ रुहिराणि य॥७१॥ कठिन शब्दार्थ - सुरा - सुरा, सीहू - सीधु, मेरओ - मेरक, महूणि - मधु से बनी मदिरा, पाइओमि - मुझे पिलाया गया, जलंतीओ - जलती हुई, वसाओ - वसा (चर्बी), रुहिराणि - रुधिर। भावार्थ - जिनको इस लोक में मदिरा प्रिय होती है, उनकी नरक में क्या दशा होती है . सो कहते हैं - मदिरा, सीधु - ताड़ वृक्ष की बनी हुई मदिरा तथा मेस्क - गुड़ से बनी हुई मदिरा और महुए से बनी हुई मदिरा, ये सभी मदिराएँ तुझे प्रिय थीं, ऐसा याद दिला कर . परमाधार्मिक देवों ने जलती हुई चर्बी और रुधिर मुझे पिलाया। णिच्वं भीएण तत्थेण, दुहिएण वहिएण य। परमा दुहसंबद्धा, वेयणा वेइया मए॥७२॥ कठिन शब्दार्थ - णिच्चं - नित्य, भीएण - भयभीत, तत्थेण - संत्रस्त, दुहिएण - दुःखित, वंहिएण - व्यथित रहते हुए, परमा - परम, दुहसंबद्धा - दुःख पूर्ण, वेयणा - वेदना, वेइया - अनुभव किया, मए - मैंने। भावार्थ - अपने कथन का उपसंहार करता हुआ मृगापुत्र कहता है कि हे माता-पिताओ! सदैव भयभीत बने हुए त्रस्त-उद्वेग पाये हुए, दुःखित बने हुए और व्यथित बने हुए अर्थात् कम्पायमान शरीर वाले मेरे इस जीव ने अत्यन्त दुःखों से युक्त वेदना वेदन की है, सहन की है। तिव्वचंडप्पगाढाओ, घोराओ अइदुस्सहा। महब्भयाओ भीमाओ, णरएसु वेइया मए॥७३॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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