Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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मृगापुत्रीय- विविध उपमाओं से संयम पालन की......
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अर्थात् स्नान, विलेपन और वस्त्राभूषणों से सदा अलंकृत रहने वाला है, इसलिए हे पुत्र ! तू श्रामण्य (साधुपना) पालने के लिए समर्थ नहीं है ।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में मृगापुत्र की सुखभोग योग्य वय, सुकुमारता, स्वच्छता आदि प्रकृति की याद दिला कर श्रमणधर्म पालन में उसकी असमर्थता का संकेत किया गया है।
विविध उपमाओं से संयमपालन की दुष्करता का वर्णन
जावज्जीवमविस्सामो, गुणाणं तु महब्भरो।
गुरुओ लोहभारुव्व, जो पुत्ता! होइ दुव्वहो ॥ ३६
कठिन शब्दार्थ जावज्जीवं - जीवन पर्यन्त, अविस्सामो - बिना विश्राम लिए, गुणाणं - गुणों का, महब्भरो - महाभार, गुरुओ - गुरुतर, लोहभारुव्व - लोहे के भार के समान, दुव्वहो - वहन करना अत्यंत कठिन है।
भावार्थ - जिस प्रकार लोह के बड़े भार को दुर्वह सदा उठाए रखना बड़ा कठिन है, उसी प्रकार हे पुत्र ! साधुपने के अनेक गुणों का जो महान् भार है उसको विश्राम लिए बिना जीवनपर्यन्त धारण करना दुर्वह बड़ा कठिन है। आगासे गंगसोउव्व, पडिसोउव्व दुत्तरो ।
बाहाहिं सागरो चेव, तरियव्वो य गुणोदही ॥ ३७ ॥
कठिन शब्दार्थ - आगासे आकाश में, गंगसोउव्व - गंगा के स्रोत, पडिसोउव्व प्रतिस्रोत जैसे, दुत्तरो - दुस्तर, बाहाहिं - भुजाओं से, सागरो - सागर, तरियव्वो - तैरना, गुणोदही - गुणोदधि - गुणों के सागर को ।
भावार्थ - जिस प्रकार आकाश गंगा की धारा को अर्थात् चुलहिमवंत पर्वत से नीचे गिरती हुई धारा को तैरना बड़ा कठिन है तथा धारा के सामने तैरना कठिन है और जिस प्रकार भुजाओं से सागर को पार करना कठिनतर• है उसी प्रकार गुण उदधि ज्ञानादि गुणों के समूह रूप उदधि - सागर को तिरना - पार करना अत्यन्त कठिन है।
वालुयाकवलो चेव, णिरस्साए उ संजमे ।
असिधारागमणं चेव, दुक्करं चरिउं तवो ॥ ३८ ॥
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कठिन शब्दार्थ - वालुयाकवलो - बालू के कवल (कौर), णिरस्साए - निःस्वाद, संजमे - संयम, असिधारागमणं
तलवार की धार पर चलना,
चरिउ
आचरण करना ।
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