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मृगापुत्रीय - मनुष्य भव के दुःखों का दिग्दर्शन
३४१. kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk************** एवं अशाश्वत इस शरीर में मुझे रति-प्रसन्नता प्राप्त नहीं होती, क्योंकि पहले या पीछे इस शरीर को अवश्य छोड़ना पड़ेगा, इसका विनाश अवश्यंभावी है।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में इस शरीर की क्षणभंगुरता एवं नश्वरता का वर्णन किया गया है। पश्चात् अर्थात् भोगों के भोग लेने पर यानी वृद्धावस्था में भुक्त भोगी बन जाने पर तथा पुरा अर्थात् भोग भोगने से पूर्व अर्थात् भोग भोगे ही न हों ऐसी बाल्यावस्था में कभी न कभी इस शरीर को अवश्य ही छोड़ना पड़ेगा। अतः मृगापुत्र अपने माता पिता से कह रहे हैं कि ऐसे शरीर में मैं आनंद नहीं पा रहा हूं।
मनुष्य भव की असारता माणुसते असारम्मि, वाहिरोगाण आलए। जरामरणपत्थम्मि, खणं पि ण रमामहं॥१५॥
कठिन शब्दार्थ - माणुसत्ते - मनुष्य शरीर में, असारम्मि - असार, वाहिरोगाण - व्याधियां और रोगों के, आलए - घर, जरामरणपत्थम्मि - जरा और मरण से ग्रस्त, खणंपि - क्षण मात्र भी, ण रमामहं - मैं सुख नहीं पा रहा हूं।
भावार्थ - कोढ़ आदि व्याधियाँ और ज्वर आदि रोगों के घर रूप तथा जरा और मृत्यु से घिरे हुए इस असार मनुष्य जन्म में मैं एक क्षण भर भी रमण नहीं करता हूँ अर्थात् प्रसन्न नहीं होता हूँ।
विवेचन - कोढ़, शूल आदि दुःसाध्य बीमारियों को 'व्याधि' कहते हैं और वात, पित्त .. तथा कफ से होने वाले ज्वर आदि को 'रोग' कहते हैं।
मनुष्य भव के दुःखों का दिग्दर्शन जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि य।. अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति जंतवो॥१६॥
कठिन शब्दार्थ - जम्मं - जन्म, दुक्खं - दुःख, जरा - जरा, रोगाणि - रोग, मरणाणि- मरण, अहो - आश्चर्य है, संसारो - संसार, जत्थ - जहां, कीसंति - क्लेश पाते हैं, जंतवो - जीव। .
भावार्थ - जन्म दुःख रूप है, बुढ़ापा दुःख रूप है तथा रोग और मृत्यु ये सभी दुःख
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