Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
३४० ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
उत्तराध्ययन सूत्र - उन्नीसवां अध्ययन
के पीछे इनका परिणाम अत्यन्त कड़वा होता है और ये काम-भोग निरन्तर दुःख देने वाले हैं, विषफल के समान हैं अर्थात् जैसे विषफल (किंपाक) देखने में सुन्दर और खाने में स्वादिष्ट और मीठा तो लगता है, किन्तु खाने के बाद वह प्राण-हरण कर लेता है, उसी प्रकार ये काम-भोग भी भोगने के समय तो प्रिय लगते हैं किन्तु परिणाम में अधिक से अधिक दुःख देने वाले हैं।
शरीर, दुःखों की खान इमं सरीरं अणिच्चं, असुई असुइ-संभवं। असासयावासमिणं, दुक्ख-केसाण-भायणं॥१३॥
कठिन शब्दार्थ - इमं - यह, सरीरं - शरीर, अणिच्चं - अनित्य, असुई - अशुचि . (अपवित्र), असुइसंभवं - अशुचि का उत्पत्ति स्थान, असासयावासं - इसमें निवास अशाश्वत
अनित्य, दुक्ख-केसाण - दुःख और क्लेशों का, भायणं - भाजन। ____ भावार्थ - यह शरीर अनित्य है, अशुचि (अपवित्र) है और अशुचि से ही इसकी उत्पत्ति हुई है एवं यह स्वयं भी अशुचि का स्थान है, इसमें जीव का निवास स्थान भी अशाश्वत ही है और यह शरीर दुःख और क्लेशों का भाजन (बर्तन) है।
विवेचन - यह शरीर अनित्य, अपवित्र, अशुचि से उत्पन्न और अशुचि से भरा है। इसमें जीव का निवास अशाश्वत है। यह शरीर जन्म, जरा, मृत्यु आदि दुःखों तथा धन-हानि, स्वजन वियोग आदि क्लेशों का भाजन स्थान या पात्र है। ___ मृगापुत्र को सांसारिक विषयाभिलाषा से तथा अनित्य, अशरण अपवित्र एवं अपवित्र पदार्थों से निर्मित, विविध दुःखों एवं संक्लेशों के घर इस शरीर से विरक्ति हो गयी।
शरीर की अशाश्वतता असासए-सरीरम्मि, रई णोवलभामहं। पच्छा पुरा व चइयव्वे, फेणबुब्बुयसण्णिभे॥१४॥
कठिन शब्दार्थ - असासए - अशाश्वत, सरीरम्मि - शरीर में, रई - रति-प्रसन्नता, णोवलभामहं - मैं नहीं पा रहा हूं, पच्छा - बाद में, पुरा - पहले, चइयव्वे - छोड़ना ही है, फेणबुब्बुय सण्णिभे - फेन के बुलबुले के समान। .
भावार्थ - मृगापुत्र अपने माता-पिता से कहता है कि जल के बुलबुले के समान क्षणभंगुर
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org