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मियापुत्तीयं णामं एगुणवीसइमं अज्झयणं
'मृगापुत्रीय' नामक उन्नीसवाँ अध्ययन
अठारहवें 'संयतीय' अध्ययन की तरह यह उन्नीसवाँ अध्ययन भी 'मृगापुत्र' का वर्णन होने से ‘मृगापुत्रीय' नाम से प्रसिद्ध हुआ है।
एक तपस्वी श्रमण को देख कर राजकुमार मृगापुत्र को जातिस्मरण ज्ञान हो जाता है और चित्रपट की तरह पूर्वभव (जन्म) की स्मृतियां ताजी हो जाती है। पूर्व जन्मों की स्मृतियों के आधार पर जहां मृगापुत्र ने इस अध्ययन में नरक के भयंकर से भयंकर दारुण दुःखों को भोगने की आपबीती कह सुनाई वहां तिर्यंच गति और मनुष्य गति के दुःखों का अनुभव भी सुनाया। मृगापुत्र ने चतुर्गति के दुःखों का दारुण वर्णन करते हुए यह भी स्पष्ट किया है कि इन दुःखोंकष्टों के सामने श्रमण जीवन के कष्ट तो उसके अनंतवें भाग भी नहीं है। . जातिस्मरण ज्ञान से मृगापुत्र को सांसारिक भोगों से विरक्ति हो जाती है और वह संयम ग्रहण करने के लिये माता-पिता से दीक्षा की अनुमति मांगता है तब होता है वैराग्य और निर्वेद रस से ओतप्रोत रोचक संवाद, जिसका इस अध्ययन में वर्णन किया गया है। प्रस्तुत है इसकी प्रथम गाथा -
सुग्गीवे णयरे रम्मे, काणणुज्जाण-सोहिए।
राया बलभद्दित्ति, मिया तस्सग्गमहिसी॥१॥ ___कठिन शब्दार्थ - सुग्गीवे णयरे - सुग्रीव नगर में, रम्मे - रम्य, काणणुज्जाण सोहिए - कानन-वनों और उद्यानों से सुशोभित, राया बलभद्दित्ति - बलभद्र राजा, मिया - मृगा, अग्गमहिसी - अग्रमहिषी-पटरानी। __भावार्थ - कानन उद्यान शोभित अर्थात् अनेक प्रकार के वन-उपवनों से सुशोभित, रमणीय सुग्रीव नाम के नगर में बलभद्र नाम का राजा राज्य करता था, उनके मृगा नाम की अग्रमहिषी-पटरानी थी।
तेसिं पुत्ते बलसिरी, मियापुत्ते त्ति विस्सुए। अम्मा-पिऊण दइए, जुवराया दमीसरे॥२॥
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