Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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संयतीय - उपसंहार *aaaaaaaaaaaaaa
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अतरिंसु - अतीत में तिर गये हैं, तरंति - वर्तमान में तिर रहे हैं, एगे - अनेक जीव, तरिस्संति - तिरेंगे-पार होंगे, अणागया - अनागत-भविष्य में।
भावार्थ - हे मुनीश्वर! कर्म-मल को शोधन करने में अत्यन्त समर्थ यह सम्पूर्ण सत्य, यह वाणी जो मैंने आपके प्रति कही है, इस वाणी के द्वारा भूतकाल में अनेक जीव संसार समुद्र तिर गये हैं, वर्तमान काल में अनेक जीव तिर रहे हैं और भविष्यत् काल में अनेक जीव तिरेंगे।
.. उपसंहार कहं धीरे अहेउहिं, अत्ताणं परियावसे। सव्व-संग-विणिम्मुक्के, सिद्धे हवइ णीरए॥५४॥ तिबेमि॥
कठिन शब्दार्थ - अत्ताणं - अपने आपको, परियावसे - लगाए, सव्व संग विणिम्मुक्के - सभी संगों से विनिर्मुक्त, सिद्धे - सिद्ध, हवइ - होता है, णीरए - नीरजकर्म रज से रहित। - भावार्थ - कौन धीर एवं बुद्धिमान् पुरुष क्रियावादी, अक्रियावादी आदि वादियों के कहे हुए कुतर्कों में फंस कर अपनी आत्मा का अहित करना चाहेगा अर्थात् कोई नहीं चाहेगा, क्योंकि इन कुहेतुओं में आत्मा को न फंसा कर जिन-शासन का आश्रय लेने से ही सभी द्रव्य संग और भाव संगों से रहित होकर तथा कर्म रूपी रज से रहित होकर यह आत्मा सिद्ध हो जाता है। ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन - उपर्युक्त तीन गाथाओं में क्षत्रिय राजर्षि द्वारा संजय राजर्षि को पूर्व में जो उपदेश दिया गया है उसका उपसंहार (निष्कर्ष) और फल बतलाया गया है।
क्षत्रियराजर्षि संजयमुनि को कहते हैं कि भरत आदि महापुरुषों ने जिनशासन की विशेषता को देख कर ही जिनशासन में प्रव्रज्या ली और अहेतुवादों से अपने आप को दूर रख कर तप संयम से सभी कर्मों को खपाया और सिद्धि प्राप्त की। अतः तुम भी इन अहेतुवादों के कुचक्र में नहीं फंस कर जिनोपदिष्ट मार्ग को अपनाते हुए कर्मों से मुक्त होने का पुरुषार्थ करोगे तो सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो जाओगे। क्योंकि इसी मार्ग पर चल कर भूतकाल में अनेक साधकों ने संसार समुद्र को पार किया है, वर्तमान में पार हो रहे हैं और भविष्य में भी पार होंगे। ऐसा मैं कहता हूँ।
|| इति संयतीय नामक अठारहवाँ अध्ययन समाप्त॥
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