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संयतीय - मुनि द्वारा अभयदान और त्याग...
३०९ ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★kakakakakakakakakakakakakakakakat
जीवियं चेव रूवं च, विज्जुसंपाय-चंचलं। जत्थ तं मुज्झसि रायं! पेच्चत्थं णावबुज्झसि॥१३॥
कठिन शब्दार्थ - जीवियं - जीवन, रूवं - रूप, विजुसंपाय - विद्युत्संपात-बिजली की चमक के समान, चंचलं - चंचल, जत्थ - जिनमें, मुज्झसि - मुग्ध हो, पेच्चत्थं - परलोक के हित को, णावबुज्झसि - नहीं समझ रहे हो।
भावार्थ - हे राजन्! जिस पर तू मोहित हो रहा है, वह जीवन और रूप तो विद्युत्संपातचंचल - बिजली के चमत्कार के समान एक क्षणविध्वंसी हैं, तो हे राजन्! परलोक के विषय में विचार क्यों नहीं करते? अर्थात् जीवन और रूप आदि सब अनित्य हैं इसलिए तुम्हारे सरीखे । बुद्धिमान् को आत्मकल्याण में प्रवृत्ति करना ही श्रेष्ठ है।
दाराणि य सुया चेव, मित्ता य तह बंधवा। जीवंतमणुजीवंति, मयं णाणुव्वयंति य॥१४॥
कठिन शब्दार्थ - दाराणि - स्त्रियाँ, सुया - पुत्र, मित्ता - मित्र, तह - तथा, बंधवा - बन्धुजन, जीवंतं - जीवित के साथ ही, अणुजीवंति - जीते हैं, मयं - मृत, णाणुव्वयंति - पीछे नहीं जाते हैं।
भावार्थ - दारा-स्त्री और सुत-पुत्र, मित्र और बन्धु संब जीते हुए के साथ जीते हैं अर्थात् जब तक घर का स्वामी जीता है तब तक उसके कमाये हुए पैसे से मौज करते हैं और उसके पीछे-पीछे चलते हैं किन्तु मृत-मरे हुए के साथ पीछे नहीं जाते, ऐसे सम्बन्धियों के लिए दिन रात अनर्थ करना और उनको अपने जीवन का आधार समझना बुद्धिमान् पुरुष के लिए कहाँ तक उचित है, उसका स्वयं विचार करना चाहिये। इस
णीहरंति मयं पुत्ता, पियरं परमक्खिया। पियरो वि तहा पुत्ते, बंधू रायं! तवं चरे॥१५॥
कठिन शब्दार्थ - णीहरंति - निकाल देते हैं, मयं - मरे हुए, पुत्ता - पुत्र, पियरं - पिता को, परमदुक्खिया - अत्यंत दुःखित होकर, पियरो वि - पिता भी, बंधू - बंधु भी, तवं - तप का, घरे - आचरण करे।
भावार्थ - मरे हुए पिता को पुत्र अत्यन्त दुःखित हो कर निकाल देते हैं और जला कर घर लौट आते हैं, इसी प्रकार पुत्रों के मर जाने पर पिता और भाई के मर जाने पर भाई करता
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