Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र - अठारहवां अध्ययन
अहो ! यह शरीर कितना असुंदर है। इसका अपना सौंदर्य तो कुछ भी नहीं है। ऐसे मलमूत्र से भरे घृणित, अपवित्र और असार देह को सुंदर मान कर मूढ़ लोग इसमें आसक्त होकर इस शरीर को वस्त्राभूषण आदि से सुशोभित करके, इसका रक्षण करने तथा इसे उत्तम खानपान से पुष्ट बनाने के लिए अनेक पाप कर्म करते हैं। वास्तव में वस्त्राभूषण आदि या मनोज्ञ खानपान आदि सभी वस्तुएं इस असुंदर शरीर के सम्पर्क से अपवित्र और विनष्ट हो जाती है । परन्तु मोक्ष के साधनभूत चिंतामणि सम इस मनुष्य जन्म को पाकर शरीर के लिए पापकर्म करके मनुष्य जन्म को हार जाना ठीक नहीं है। इस प्रकार शुभ ध्यान करते हुए भरत चक्रवर्ती क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हुए। फिर शीघ्र ही चार घातिकर्मों का क्षय कर केवलज्ञान केवलदर्शन प्राप्त कर लिया। शकेन्द्र ने उन्हें संयमोपकरण दिए । भरत ने मुनिवेश धारण किया। अपने मस्तक का पंचमुष्टि लोच किया । भरत को मुनिवेश में देख कर १० हजार अन्य राजाओं ने दीक्षा ली। एक लाख पूर्व अन्तर्मुहूर्त्त कम तक केवलिपर्याय का पालन कर भरत केवली सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए ।
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२. सगर चक्रवर्ती
सगरो वि सागरंतं, भरहवासं णराहिवो ।
इस्सरियं केवलं हिच्चा, दयाइ परिणिव्वुडे ॥ ३५ ॥ कठिन शब्दार्थ - सगरो वि सगर नाम के, णराहिवो नराधिप, सागरतं समुद्र पर्यन्त, इस्सरियं - ऐश्वर्य को, केवलं संपूर्ण, हिच्चा छोड़कर, दया संयम की साधना से, परिणिव्वुडे - परिनिर्वृत अर्थात् मोक्ष प्राप्त किया।
दया अर्थात्
भावार्थ सगर नाम के नराधिप, दूसरे चक्रवर्ती ने भी समुद्रपर्यंत भारतवर्ष तथा सम्पूर्ण ऐश्वर्य को छोड़ कर दीक्षा अंगीकार की और तप-संयम का आराधन कर परिनिर्वृत अर्थात् मोक्ष प्राप्त किया ।
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विवेचन
अयोध्या नगरी के जितशत्रु राजा की विजया रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया जो अजितनाथ नामक दूसरे तीर्थंकर हुए। जितशत्रु राजा के छोटे भाई सुमित्र नामक युवराज की पत्नी यशोमती से सगर नामक द्वितीय चक्रवर्ती का जन्म हुआ। जितशत्रु राजा ने अपना राज्य अजितकुमार को सौंपा और सगर को युवराज पद दिया । जितशत्रु ने अपने भाई सुमित्र सहित
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