Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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कठिन शब्दार्थ - पडिक्कमामि - निवृत्त हो गया हूं, पसिणाणं
शुभाशुभ सूचक
प्रश्नों से, परमंतेहिं - परमंत्रों - गृहस्थों की मंत्रणाओं से, उट्ठिए - उद्यत, अहोरायं दिन रात । भावार्थ क्षत्रिय राजर्षि पुनः कहते हैं कि मैं शुभाशुभ फल सूचक सावद्य प्रश्नों के उत्तर से और गृहस्थ सम्बन्धी सावद्य कार्यों के विचार-विनिमय से निवृत्त हो गया हूँ और रात-दिन धर्म साधना में उद्यत रहता हूँ। जो शुद्ध संयम का पालन करना चाहते हैं, उन मुनियों को भी ऐसा ही करना चाहिए, इस प्रकार जान कर बुद्धिमान् साधु को सदा, तप संयम का आचरण करना चाहिए । 'अहो' यह विस्मयार्थक अव्यय है ।
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उत्तराध्ययन सूत्र - अठारहवां अध्ययन
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जं च मे पुच्छसि काले, सम्मं सुद्धेण चेयसा । ताई पाउकरे बुद्धे, तं णाणं जिणसासणे ॥ ३२ ॥ कठिन शब्दार्थ - पुच्छसि - पूछ रहे हो, काले काल विषयक, सम्म सम्यक्, सुद्धेण - शुद्ध, चेयसा चित्त से, तं णाणं - वह ज्ञान, जिणसासणे - जिनशासन में ।
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भावार्थ हे मुनीश्वर ! सम्यक् प्रकार एवं शुद्ध चित्त से यदि तुम मुझ से किसी समय प्रश्न करो तो मैं तुम्हारे प्रश्नों का ठीक उत्तर दे सकता हूँ क्योंकि इस प्रकार का सारा ज्ञान जिन - शासन में विद्यमान है, जो कि सर्वज्ञ भगवान् ने फरमाया है और उन्हीं ज्ञानियों की कृपा से मैं भी बुद्ध हूँ । अतएव तुम्हारे सारे प्रश्नों का उत्तर दे सकता हूँ। जिनशासन में रह कर संयम का पालन करने से तुम भी बुद्ध हो सकते हो ।
किरियं च रोयए धीरे, अकिरियं परिवज्जए ।
दिट्ठिए दिट्ठिसंपणे, धम्मं चरसु दुच्चरं ॥ ३३ ॥
कठिन शब्दार्थ - रोयए - रुचि करता है, धीरे - धीर पुरुष, दिट्ठीए - सम्यग्दर्शन से, दिट्ठीपणे धर्म का, चर दृष्टि संपन्न होकर, धम्मं आचरण करों, दुच्चरं
अतिदुष्कर।
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भावार्थ - हे मुने! धीर पुरुषों को चाहिए कि क्रिया अर्थात् आस्तिकता में विश्वास करे और नास्तिकता का त्याग कर दे तथा सम्यग् दर्शन और सम्यग्ज्ञान से सम्पन्न होकर अति दुष्कर धर्म का आचरण करे। अतः हे मुनीश्वर ! तुम भी दृढ़तापूर्वक धर्म का आचरण करो ।
विवेचन - प्रस्तुत चार गाथाओं में क्षत्रियराजर्षि ने सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप से भ्रष्ट एवं विरत करने वाले मत, अभिप्रायों, रुचियों, निमित्त प्रश्नों के ज्ञान तथा गृहस्थ कार्यों
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