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संयतीय - शुद्ध ज्ञान क्रिया में स्थिर रहने का उपदेश
से चुए बंभलोगाओ, माणुसं भवमागए। अप्पणो य परेसिं च, आउं जाणे जहा तहा॥२६॥
कठिन शब्दार्थ - चुए - चव कर, बंभलोगाओ - ब्रह्म देवलोक से, माणुसं - मनुष्य के, भवं - भव में, आगए - आया हूं, अप्पणो - अपनी, परेसिं - दूसरों की, आउं - आयु, जाणे - जानता हूं, जहा तहा - जैसी है वैसी। ___भावार्थ - वहाँ की दस सागरोपम की स्थिति भोगने के बाद, ब्रह्म देवलोक से चव कर में मनुष्य के भव में आया हूँ और मैं अपनी और दूसरों की आयु को जैसी है वैसी यथार्थ जानता हूँ।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में क्षत्रियमुनि द्वारा जातिस्मरण स्वरूप अतिशय ज्ञान की अभिव्यक्ति की गयी है अर्थात् पूर्व जन्म का ज्ञान प्राप्त हो जाने से मैं सब सत्य-सत्य जानता हूं, विपरीत नहीं। . .: शुद्ध ज्ञान क्रिया में स्थिर रहने का उपदेश ..
णाणारुइं च छंदं च, परिवज्जेज्ज संजए। अणट्ठा जे य सव्वत्था, इइ विज्जामणुसंचरे॥३०॥
कठिन शब्दार्थ - णाणारुई - नाना प्रकार की रुचि, छंदं - मनःकल्पित अभिप्रायों का, परिवज्जेज्ज - त्याग कर दे, अट्ठा - अनर्थकारी, सव्वत्था - सर्वथा, विज्जां - जान कर, अणुसंचरे - प्रवृत्ति करे।
भावार्थ - क्षत्रिय राजर्षि, संजयमुनि से कहते हैं कि संयत-साधु को चाहिए कि क्रियावादी अक्रियावादी आदि वादियों की नाना प्रकार की रुचि और अपनी बुद्धि से कल्पित भिन्न-भिन्न प्रकार के. अभिप्रायों का सर्वथा त्याग कर दे और जो हिंसा झूठ आदि अनर्थकारी पाप कार्य हैं उन सब को सर्वथा एवं सर्वत्र त्याग कर दे और इस प्रकार सम्यग् ज्ञान को अंगीकार करके संयम-मार्ग में प्रवृत्ति करे।
पडिक्कमामि पसिणाणं, परमंतेहिं वा पुणो। अहो उठ्ठिए अहोरायं, इइ विज्जा तवं चरे॥३१॥
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