Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 344
________________ ३१५ । संयतीय - पाप और धर्म का फल *aaaaaaa**************************kakakakakkkkkkkkkkkkkkkkkkkk भावार्थ - क्षायिक ज्ञान और चारित्र से सम्पन्न सत्य बोलने वाले, सत्य में पराक्रम करने वाले एवं कर्म-शत्रुओं का विनाश करने वाले कषायों को शांत करने वाले तत्त्ववेत्ता-केवलज्ञानी, ज्ञातपुत्र श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उपरोक्त चारों वादों का कथन किया है। पाप और धर्म का फल पडंति णरए घोरे, जे णरा पावकारिणो।। दिव्वं च गई गच्छंति, चरित्ता धम्ममारियं॥२५॥ कठिन शब्दार्थ - पडंति - गिरते हैं, णरए - नरक में, घोरे - घोर, जे - जो शरानर, पावकारिणो - पाप करते हैं, दिव्यं - दिव्य, गई - गति को, मच्छंति - प्राप्त करते हैं, चरित्ता - आचरण करके, धम्म - धर्म को, आरियं - आर्य। ____भावार्थ - जो मनुष्य पाप करने वाले हैं अर्थात् असत् प्ररूपणा और हिंसादि पाप-कर्म से प्रवृत्ति करने वाले हैं वे घोर अंधकार वाली भयानक नरक में पड़ते हैं (जाते हैं) और श्रुत चारित्र रूप आर्य धर्म का आचरण करके जीव देवगति को प्राप्त होते हैं, इसलिए पापकर्म का तथा मिथ्यापक्ष का त्याग करके सत्य प्ररूपणा एवं आर्यधर्म का अनुसरण करना चाहिये। . .. विवेचन - जो मनुष्य पापकर्ता है-असत्य प्ररूपणा रूप पाप करते हैं वे भीषण नरक में जाते हैं किंतु जो सत्य प्ररूपणा रूप आर्य-वीतराग प्ररूपित धर्म का आचरण-आराधन करते हैं . वे दिव्य-उत्तम गति को प्राप्त करते हैं। यहां असत्य वचन को पाप और सत्य वचन को धर्म . समझना चाहिये। .. मायाबुइयमेयं तु मुसा भासा णिरत्थिया। संजममाणोवि अहं, वसामि इरियामि य॥२६॥ कठिन शब्दार्थ - मायाबुइयं - मायापूर्वक, एयं - यह कथन, मुसा - मृषा, भासा - भाषण, णिरत्थिया - निरर्थक, संजममाणों - संयत (निवृत) होकर, वसामि - रहता हूं, इरियामि - चलता हूं। .. भावार्थ - क्षत्रिय मुनि संजयमुनि से कहते हैं कि मुने! क्रियावादी आदि लोग, माया पूर्वक बोलते हैं इसलिए उनकी भाषा (कथन) मिथ्या और निरर्थक है। उनके कथन को सुनता हुआ भी मैं, संयम-मार्ग में भली प्रकार स्थित हूँ और यतनापूर्वक गोचरी आदि के लिए जाता हूँ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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