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___संयतीय - धर्म में सुदृढ़ करने के लिए महापुरुषों...... ३१६ ************************kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk की मंत्रणाओं से, हिंसादि पापजनक विविध प्रवृत्तियों तथा अज्ञान एवं मिथ्यात्व की पोषक क्रियाओं या अक्रियाओं से दूर रहने और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप रूप मोक्षमार्ग में स्थिर रहने का उपदेश दिया है।
धर्म में सुदृढ़ करने के लिए महापुरुषों के उदाहरण
संजयमुनि को संयम में विशेष स्थिर करने के लिए तथा मुमुक्षुजन को धर्म में दृढ़ करने के लिए क्षत्रियराजप्रिं कुछ महापुरुषों के उदाहरण देते हैं - . .
१. भरत चक्रवती .. एयं पुण्णपयं सोच्चा, अत्थधम्मोवसोहियं।.. भरहो वि भारहं वासं, चिच्चा कामाइ पव्वए॥३४॥
कठिन शब्दार्थ - पुण्णपयं - पुण्यपद-पवित्र उपदेश वचन, अत्थधम्भोवसोहियं - ' अर्थ और धर्म से उपशोभित, भरहो वि. - भरत चक्रवर्ती भी, भारहं वासं - भारत वर्ष को, - चिच्चा - परित्याग कर, कामाई - कामभोगों को, पव्वए - प्रवजित हुए
भावार्थ - अर्थ (मोक्ष) और धर्म (श्रुत-चारित्र रूप धर्म) से शोभित उपसेक्त कल्याणकारी उपदेश सुन कर प्रथम चक्रवर्ती भरत महाराजा ने सम्पूर्ण भारतवर्ष का विशाल राज्य और विषय-भोगों को छोड़ कर दीक्षा ली।
विवेचन - अत्थधम्मोवसोहियं - अर्थ और धर्म से युक्त की व्याख्या इस प्रकार है - अर्थ अर्थात् लक्ष्यभूत पदार्थ जिसको प्राप्त करने के लिये संयमाचरण किया जाता है, वह पदार्थ है मोक्ष। धर्म अर्थात् उस मोक्ष रूप अर्थ को प्राप्त करने का उपाय - सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तपरूप मोक्षमार्ग।
प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के १०० पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र भरत, छह खण्ड़ों को जीत कर इस अवसर्पिणी के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट बने। एक बार भरत चक्रवर्ती महान् वैभव से तथा समस्त आभूषणों से शरीर को विभूषित कर आदर्श (स्फटिक रत्न से निर्मित कांच की तरह पारदर्शक) महल में आए। दर्पण के सामने अपने शरीर की शोभा देख रहे थे उस समय शरीर की अनित्यता का चिन्तन करते हुए वह शरीर उन्हें शोभारहित दिखने लगा। इस पर चक्रवर्ती ने चिंतन किया -
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