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उत्तराध्ययन सूत्र - अठारहवां अध्ययन *******************kakkakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk कुक्षि से सनत्कुमार का जन्म हुआ। पिता ने शुभ मुहूर्त में सनत्कुमार का राज्याभिषेक किया। अश्वसेन और सहदेवी ने दीक्षा अंगीकार कर मनुष्य जन्म सार्थक किया। कुछ समय बाद सनत्कुमार चक्रवर्ती हो गए, उन्होंने छह खंडों पर अपनी विजय पताका फहराई। सनत्कुमार चक्रवर्ती बहुत रूपवान् थे। उनके रूप की प्रशंसा बहुत दूर-दूर तक फैल चुकी थी। एक दिन प्रातःकाल ही स्वर्ग से चल कर दो देव ब्राह्मण का रूप बना कर उनके रूप को देखने के लिए
आए। सनत्कुमार चक्रवर्ती उस समय स्नानार्थ स्नान घर में जा रहे थे, उन्हें देख कर ब्राह्मणों ने उसके रूप की बहुत प्रशंसा की। अपने रूप की प्रशंसा सुन कर सनत्कुमार चक्रवर्ती को बड़ा अभिमान हुआ। उन्होंने ब्राह्मणों से कहा - 'आप लोग अभी मेरे रूप को क्या देख रहे हो, जब मैं स्नानादि कर वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर राजसभा में सिंहासन पर बैलूं तब आप मेरे रूप को देखना।' स्नानादि से निवृत्त होकर जब सनत्कुमार चक्रवर्ती सिंहासन पर जाकर बैठे तब उन ब्राह्मणों को राजसभा में उपस्थित किया गया। ब्राह्मणों ने कहा - 'राजन्! आपका रूप पहले जैसा नहीं रहा। राजा ने कहा - 'यह कैसे?' ब्राह्मणों ने कहा - 'आप अपने मुंह को देखें, उसके अन्दर क्या हो रहा है?' राजा ने यूंक कर देखा तो उसके अन्दर एक दो नहीं बल्कि सैकड़ों कीड़े किलबिलाहट कर रहे थे और उससे भयंकर दुर्गन्ध आ रही थी। चक्रवर्ती का रूप सम्बन्धी अभिमान चूर हो गया। उन्हें शरीर की अशुचि का भान हो गया। वे विचारने लगे 'यह शरीर घृणित एवं अशुचिमय पदार्थों से उत्पन्न हुआ है और स्वयं भी अशुचि का भण्डार है।' इस प्रकार उनके हृदय में अशुचि भावना प्रबल हो उठी। संसार से उन्हें वैराग्य हो गया। छह खण्ड का राजपाट छोड़ कर उन्होंने दीक्षा अंगीकार कर ली। उत्कृष्ट तप का आराधन कर इस
अशुचिमय शरीर को छोड़ कर सिद्ध पद प्राप्त किया। .. .. - इस अवसर्पिणी काल में बारह चक्रवर्ती हुए हैं। उनमें से दस चक्रवर्ती मोक्ष गये हैं। टीकाकार लिखते हैं कि - 'तीसरे चक्रवर्ती मघवा और चौथे चक्रवर्ती सनत्कुमार ये दोनों तीसरे देवलोक में गये हैं।' किन्तुं टीकाकार का यह लिखना आगम सम्मत्त मालूम नहीं होता है। क्योंकि आठवें चक्रवर्ती सुभूम और बारहवें चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त ये दोनों चक्रवर्ती काल करके सातवीं नरक के अप्रतिष्ठान नामक नरक में तेतीस सागरोपम की स्थिति में गये हैं, ऐसा वर्णन ठाणाङ्ग सूत्र के दूसरे ठाणे में है। यदि मघवा और सनत्कुमार ये दो चक्रवर्ती देवलोक में गये होते तो ठाणाङ्ग के दूसरे ठाणे में उनका भी वर्णन कर देते, किन्तु वैसा नहीं किया है। ठाणाङ्ग
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