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उत्तराध्ययन सूत्र - अठारहवां अध्ययन ************************************************************ है अर्थात् एक मरता है और दूसरा उसको ले जा कर जला आता है। यह संसार के सम्बन्ध की अवस्था है। कोई किसी के साथ नहीं जाता, इसलिए हे राजन्! इन सब का मोह छोड़ कर तप संयम का सेवन करना चाहिए।
तओ तेणज्जिए दव्वे, दारे य परिरक्खिए। कीलंतिऽण्णे णरा रायं, हट्ठतुट्ठमलंकिया॥१६॥
कठिन शब्दार्थ - तेण - उसके द्वारा, अजिए - अर्जित, दव्वे - द्रव्य, परिरक्खिए - सुरक्षित, कीलंति - उपभोग करते हैं, अण्णे - अन्य, णरा - लोग, हट्टतुट्ठमलंकिया - हृष्ट, तुष्ट और अलंकृत होकर।
भावार्थ - हे राजन्! उस पुरुष के मर जाने के बाद उस मृत पुरुष के द्वारा. अर्जितउपार्जन किये हुए द्रव्य-धन का और सब प्रकार के रक्षा की हुई स्त्रियों का, दूसरे पुरुष जो कि हृष्ट-पुष्ट और विभूषित हैं वे उपभोग करते हैं अर्थात् जो स्त्रियाँ पुरुषों के बिना और जो पुरुष स्त्रियों के बिना अपना जीवित रहना असंभव कहते थे, वे मृत्यु के थोड़े दिनों के बाद ही एक दूसरे को भूल कर मौज-शौक में लग जाते हैं।
तेणावि जं कयं कम्मं, सुहं वा जइ वा दुहं। कम्मुणा तेण संजुत्तो, गच्छइ उ परं भवं॥१७॥
कठिन शब्दार्थ - सुहं - सुख, दुहं - दुःख, कम्मुणा - कर्म से, संजुत्तो-- संयुक्तसाथ, गच्छइ - जाता है, परं भवं - परभव में।
भावार्थ - उस मृत आत्मा ने भी जो सुख (सुख का कारण रूप शुभकर्म) अथवा दुःख कर्म (दुःख का कारण रूप अशुभकर्म) किया है, उस शुभाशुभ कर्म से संयुक्त-युक्त होकर परभव में चला जाता है। सगे सम्बन्धी, पुत्र, स्त्री एवं धन और परिवार ये सब यहीं रह जाते हैं। केवल जीव के किये हुए शुभाशुभ कर्म ही उसके साथ जाते हैं।
विवेचन - मुनि ने अपना ध्यान सहज भाव से खोला और राजा को अत्यधिक भयभीत हुआ देखकर बोले - राजन्! मैं अपनी ओर से तुम्हें अभयदान देता हूँ परन्तु जिस प्रकार तुम अपने प्राणों के विनाश होने के डर से भयभीत हो रहे हो, इसी प्रकार ये मूक प्राणी भी तो भयभीत हो रहे हैं, अतः जिस प्रकार मैंने तुम्हें अभयदान दिया है, उसी प्रकार तुम भी इन्हें
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