Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 337
________________ ३०८ उत्तराध्ययन सूत्र - अठारहवां अध्ययन *************************kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk विवेचन - राजा अपने अपराध के लिए क्षमा मांग रहा था किंतु मुनि तो ध्यानस्थ थे, वे सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान समझते हुए मैत्री भावना से ओतप्रोत हो रहे थे। उनकी तन्मयता, मौन तथा तप की तेजस्विता देख कर राजा अत्यंत भयभीत होकर अपना नाम लेकर गिड़गिड़ाता हुआ मुनि से क्षमादान की प्रार्थना करने लगा क्योंकि राजा ने सोचा - ‘मुनि क्रुद्ध हो गए हैं और इसी तरह क्रुद्ध रहे तो ये एक क्षण में लाखों करोड़ों व्यक्तियों को भस्म कर सकते हैं। मुनि द्वारा अभयदान और त्याग का उपदेश अभओ पत्थिवा! तुज्झं, अभयदाया भवाहि य। अणिच्चे जीवलोगम्मि, किं हिंसाए पसज्जसि॥११॥ कठिन शब्दार्थ - अभओ - अभय, पत्थिवा - हे पार्थिव! तुझं - तुझे, अभयदायाअभयदाता, भवाहि - बन, अणिच्चे - अनित्य, जीवलोगम्मि - जीव लोक में, किं. - क्यों, हिंसाए - हिंसा में, पसजसि - आसक्त हो रहा है। ___ भावार्थ - तत्पश्चात् मुनि कहने लगे कि हे पार्थिव! हे राजन्! तुम अभय हो अर्थात् तुम मेरी ओर से किसी प्रकार का भय मत रखो और हे राजन्! तुम भी अभयदान देने वाले बनो अर्थात् जिस प्रकार तुम मुझसे भय मान रहे हो उसी प्रकार वन के ये जीव भी तुम से भयभीत हो रहे हैं, किन्तु अब मैंने तुमको अभयदान दिया है, वैसे ही इन जीवों को तुम भी अभयदान देकर निर्भय बना दो, इस अनित्य जीवलोक-संसार में हिंसा करने में क्यों, आसक्त हो रहे हो? अर्थात् संसार की कोई वस्तु नित्य नहीं है, तब इस क्षणभंगुर जीवन के लिए तुम हिंसा जैसे क्रूर कर्म में क्यों प्रवृत्त हो रहे हो? जया सव्वं परिच्चज्ज, गंतव्वमवसस्स ते। अणिच्चे जीवलोगम्मि, किं रजम्मि पसज्जसि॥१२॥ कठिन शब्दार्थ - परिच्वज - छोड़ कर, गंतव्वं - जाना है, अवसस्स - परवश हुए, रज्जमि - राज्य में। भावार्थ - जब सभी वस्तुओं को छोड़ कर अवश होकर अर्थात् कर्मों के वश होकर तुम को परलोक में अवश्य जाना पड़ेगा तो फिर इस अनित्य संसार में तथा राज्य में क्यों आसक्त हो रहे हो? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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