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संयतीय • संजय नृप की विरक्ति और प्रव्रज्या ग्रहण
३११ kakakakakakakakakakakakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk अभयदान दो। इस थोड़ी सी जिंदगी के लिए, थोड़े से भोगों के लिए क्यों प्राणिवध का महापाप कर रहे हो? यह धन, स्वजन, परिजन या कामभोग आदि कोई भी काल से तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते, न ही ये तुम्हें सुख दे सकते हैं। एक मात्र अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म ही तुम्हारी रक्षा कर सकता है, तुम्हें इहलोक और परलोक में सुख दे सकता है। इन क्रूर कर्मों का कटुफल तुम्हें स्वयं ही भोगना पड़ेगा, अतः कर्मबंधन से बचो।
संजय नृप की विरक्ति और प्रव्रज्या ग्रहण सोऊण तस्स सो धम्मं, अणगारस्स अंतिए। महया संवेग-णिव्वेयं, समावण्णो णराहिवो॥१८॥
कठिन शब्दार्थ - सोऊण - सुन कर, धम्म - धर्म को, अणगारस्स - अनगार के, अंतिए - समीप, महया - महान्, संवेग - संवेग-मोक्षाभिलाषा, णिव्वेयं - निर्वेद-संसार से. उद्विग्नता, समावण्णो - प्राप्त हुआ।
भावार्थ - उन गर्दभाली अनगार के समीप धर्म सुन कर वह नराधिप-राजा महान् संवेग और निर्वेद को प्राप्त हुआ अर्थात् उस योगीश्वर के धर्मोपदेश से तथा पूर्व संस्कारों की प्रबलता से उसी समय संवेग (मोक्ष की तीव्र अभिलाषा) और निर्वेद (संसार एवं काम-भोगों से विरक्ति) के भाव उत्पन्न हो गए। - संजओ चइ रज्ज, णिक्खंतो जिणसासणे।
गद्दभालिस्स भगवओ, अणगारस्स अंतिए।।१६।।
कठिन शब्दार्थ - चइडं - छोड़ कर, रज्जं - राज्य, णिक्खंतो - निष्क्रमण कियाप्रव्रजित हो गया, जिणसासणे - जिन-शासन में, गहभालिस्स - गर्दभाली, अंतिए - पास।
भावार्थ - संजय राजा राज्य छोड़ कर भगवान् गर्दभाली अनगार के पास जिनशासन में दीक्षित हो गया।
विवेचन - संजय राजा पर गर्दभालि मुनि के मौन और तत्पश्चात् उनके युक्तिसंगत करूणामय प्रवचन का अचूक प्रभाव पड़ा, मुनि की प्रत्येक बात उसके गले उतर गई। क्रमशः वह सर्वस्व त्याग कर मुनि बन कर, रत्नत्रय की साधना और तपश्चरण में लीन हो गया। --
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