Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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इषुकारीय - कामभोग, संसार वर्द्धक
२५७ ******************************************************* उपायों से इनकी रक्षा करने पर भी ये काम-भोग कभी स्थिर रहने वाले नहीं है अर्थात् कभी न कभी ये हमें छोड़ देंगे तो फिर जिस प्रकार इन भृगु पुरोहित आदि ने इनको छोड़ दिया है, उसी प्रकार हम भी क्यों न छोड़ दें? हम भी दीक्षा अंगीकार करेंगे।
त्याग में सुख है ..' सामिस्सं कुललं दिस्स, वज्झमाणं णिरामिसं। __ आमिसं सव्वमुज्झित्ता, विहरिस्सामि णिरामिसा॥४६॥
कठिन शब्दार्थ - सामिस्सं - मांस सहित, कुललं - पक्षी को, दिस्स - देखकर, वज्झमाणं - पीड़ित होता हुआ, णिरामिसं - निरामिष - मांस रहित को, आमिसं - कामभोगादि आमीष को, उज्झिता - छोड़ कर, विहरिस्सामि - विचरण करूँगी, णिरामिसानिरामिष - भोग रूपी आमिष से रहित।
____भावार्थ - जैसे किसी पक्षी के मुंह में मांस के टुकड़े को देख कर दूसरे पक्षी उस पर झपटते हैं और उसे अनेक प्रकार से पीड़ा पहुंचाते हैं किन्तु जब वही पक्षी मांस के टुकड़े को छोड़ देता है, तो फिर उसे कोई नहीं सताता। इसी प्रकार हे राजन्! मैं भी मांस के टुकड़े के समान इस समस्त धन धान्यादि परिग्रह को छोड़ कर तथा समस्त बन्धनों से रहित होकर संयम मार्ग में विचरूंगी।
कामभोग, संसार वर्द्धक गिद्धोवमा उ णच्चा णं, कामे संसार-वहणे। उरगो सुवण्ण-पासे व्व, संकमाणों तणुं बरे॥४७॥
कठिन शब्दार्थ - गिद्धोवमा - गृद्ध पक्षी की उपमा वाले, संसार-वहुणे - संसार को बढ़ाने वाले, उरगो - सर्प, सुवण्णपासे - गरुड़ के समीप, संकमाणो - शंकित होकर, तणुं - धीरे-धीरे (यतना पूर्वक), चरे - चलता है। ___भावार्थ - उपरोक्त गृद्ध पक्षी की उपमा सुन कर और कामभोगों को संसार की वृद्धि करने वाले जान कर मुमुक्षु पुरुष को चाहिए कि जैसे सर्प, गरुड़ पक्षी के सामने शंकित होकर धीरे-धीरे निकल जाता है उसी प्रकार साधु विषय-भोगों से शंकित हो कर संयम मार्ग में प्रवृत्ति करे।
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