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उत्तराध्ययन सूत्र - चौदहवां अध्ययन
मोक्ष, स्वस्थान है
णागो व्व बंधणं छित्ता, अप्पणो वसहिं वए ।
एवं पत्थं महारायं, उस्सुयारित्ति ! मे सुयं ॥ ४८ ॥
कठिन शब्दार्थ - णागो व्व - जैसे हाथी, बंधणं - बंधनों को, छित्ता - तोड़ कर, अप्पणी - अपने, वसहिं निवास स्थान में, व है, उस्सुयारि - इषुकार, महाराय हे महाराज!, में
चला जाता हैं, पत्थं
पथ्य (श्रेयस्कर)
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मैंने, सुयं सुना है।
भावार्थ - जैसे हाथी सांकल आदि के बन्धन को तोड़ कर अपने स्थान पर चला जाता है और वहाँ सुखपूर्वक रहता है इसी प्रकार हे इषुकार महाराज! कर्म बन्धनों से छूट जाने पर यह आत्मा भी परमानंद स्वरूप मोक्ष को प्राप्त हो जाता है, ऐसा हितकारी उपदेश मैंने तत्त्वज्ञ पुरुषों से सुना है।
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राजा और रानी त्यागी
चइत्ता विउलं रज्जं, कामभोगे य दुच्चए । णिव्विसया णिरामिसा, णिण्णेहा णिप्परिग्गहा ॥ ४६ ॥ कठिन शब्दार्थ - चइत्ता छोड़ कर, विउलं - विपुल, रज्जं राज्य को, दुच्चए दुस्त्यज, णिव्विसया - निर्विषय, णिरामिसा - निरामिष, णिण्णेहा - निःस्नेह, णिप्परिग्गहानिष्परिग्रही ।
सम्मं धम्मं वियाणित्ता, चिच्चा कामगुणे वरे । तवं पगिज्झऽहक्खायं, घोरं घोरपरक्कमा ॥ ५० ॥
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हुए
भावार्थ रानी कमलावती के उपदेश से राजा को प्रतिबोध हो गया, फिर राजा और रानी दोनों विस्तीर्ण राज्य को छोड़ कर और दुस्त्याज्य (कठिनता से छोड़े जाने योग्य) अथवा दुर्जय (कठिनाई से जीते जाने वाले) कामभोगों को छोड़ कर विषयों से रहित धन धान्यादि के ममत्व से रहित, स्नेह से रहित और परिग्रह से रहित हो गये ।
तप संयम में पराक्रमी बने
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