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पापश्रमणीय
आयरिय-उवज्झाएहिं, सुयं विणयं च गाहिए ।
ते चेत्र खिंसइ बाले, पावसमणे ति वच्चइ ॥ ४ ॥
कठिन शब्दार्थ - आयरिय-उवज्झाएहिं - जाचार्य और उपाध्यायों की, सुयं श्रुत, विणयं - विनय, गाहिए - ग्रहण किया है, खिंसइ - निंदा करता है, बाले
बाल-अज्ञानी
विवेक विकल ।
भावार्थ - जिन आचार्य तथा उपाध्यायजी महाराज से शास्त्र और विनय ग्रहण किया है, उन्हीं की जो बाल- अज्ञानी निंदा करता है, वह पापश्रमण कहलाता है। आयरिय-उवज्झायाणं, सम्मं ण पडितप्पड़ ।
अपडिपूयए थे, पावसमणे ति वच्च ॥ ५ ॥
कठिन शब्दार्थ सम्म सम्यक् प्रकार से, ण पडितप्पड़ परितृप्त नहीं करता, प्रीति नहीं रखता, अपडिपूयए - अप्रतिपूजक करने वाला पूज्य भाव नहीं रखने वाला, थद्धे - स्तब्ध - अहंकारी ।
भावार्थ - जो आचार्य तथा उपाध्यायजी की सम्यक् प्रकार से
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पापश्रमण का स्वरूप *********★★★★★★★:
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सेवा नहीं करता और गुणी जनों के एवं अरहंतादि के गुणग्राम नहीं करता तथा उपकारी पुरुषों के उपकार को नहीं मानता और अभिमान करता है, वह पापश्रमण कहलाता है।
सम्ममाणो पाणाणि, बीयाणि हरियाणि य ।
अप्पमज्जियमारुहइ, पावसमणे त्ति वुच्चइ ॥ ७ ॥ कठिन शब्दार्थ - संथारं - संस्तारक-बिछौना, फलग
असंजए संजयमण्णमाणो, पावसमणे त्ति वुच्चइ ॥ ६ ॥
कठिन शब्दार्थ - सम्मद्दमाणो सम्मर्दन करने वाला, पाणाणि द्वीन्द्रिय आदि प्राणी, बीयाणि - बीज, हरियाणि हरित वनस्पति, असंजए - असंयत, संजय - संयत, मण्णमाणो मानने वाला ।
भावार्थ - बेइन्द्रियादि प्राणियों को, बीजों को और हरी वनस्पति को मर्दन करता हुआ अर्थात् चलते समय इनको पैरों तले कुचल कर चलने वाला तथा स्वयं असंयत (असंयति) होकर भी अपने आपको, संयत (संयति) मानने वाला पापश्रमण कहलाता है। संथारं फलगं पीढं, णिसिज्जं पाय- - कंबलं ।
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चिंता नहीं करता, बड़ों का सम्मान नहीं
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फलक-पाट, पीढं
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पीठ
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