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संयतीय - नृप का पश्चात्ताप
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. ध्यानस्थ गर्दभालि अनगार अह केसरम्मि उज्जाणे, अणगारे तेवोधणे। सज्झायज्झाणसंजुत्ते, धम्मज्झाणं झियायइ॥४॥
कठिन शब्दार्थ - तवोधणे - तपोधनी, सज्झायज्झाणसंजुत्ते - स्वाध्याय और ध्यान में संलग्न, धम्मज्झाणं - धर्म ध्यान का, झियायइ - चिंतन (ध्यान) कर रहे थे।
भावार्थ - उस केसर नाम के उद्यान में तपोधनी, स्वाध्याय और ध्यान में लगे हुए एक अनगार महात्मा धर्मध्यान ध्याते थे।
.. मृग का हनन अप्फोवमंडवम्मि, झायइ खवियासवे*। तस्सागए मिगे पासं, वहेइ से णराहिवे॥५॥
कठिन शब्दार्थ - अप्फोवमंडवम्मि - अप्फोवमण्डप - वृक्षादि से घिरा हुआ मण्डप अथवा नागरवेल, द्राक्षा आदि लताओं से वेष्टित मण्डप, झायइ - ध्यान कर रहे थे, खवियासवे - आस्रवों का क्षय करने वाले, तस्स - उनके, पासं - पास में, आगए - आये हुए, वहेइ - मार डाला, णराहिवे - नराधिप।
भावार्थ - कर्मबन्ध के हेतु स्वरूप हिंसादि आस्रवों का क्षय करने वाले वे महात्मा, वृक्ष-गुच्छ-गुल्म-लताओं से युक्त तथा नागरवेल आदि से आच्छादित मंडप में ध्यान कर रहे थे राजा से भयभीत हुए कुछ मृग दौड़ कर उन मुनि के पास चले आये किन्तु वह नराधिप (राजा), उन मृगों पर भी बाण चला कर मारने लगा।
नृप का पश्चात्ताप अंह आसगओ राया, खिप्पमागम्म सो तहिं। हए मिए उ पासित्ता, अणगारं तत्थ पासइ॥६॥ कठिन शब्दार्थ - आसगओ - अश्वारूढ़, खिप्पमागम्म - शीघ्र आकर, हए - मरे हुए। * पाठान्तर - 'झवियासवे'
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