Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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को वस्त्र, उप्पज्जइ
हो रहा है, आउस - हे आयुष्मन्, काहामि - करूंगा, सुएण - श्रुतज्ञान ।
हे पूज्य
भावार्थ - उपरोक्त रीति से स्वच्छन्दता पूर्वक विचरने वाले मुनि से जब गुरु आदि हितबुद्धि से, शास्त्र अध्ययन के लिए प्रेरणा करते हैं, तब वह उन्हें उत्तर देता गुरुदेव! रहने के लिए मुझे दृढ़ - वर्षा, धूप, ठंड आदि से रक्षा करने वाला स्थान मिला हुआ है और ओढ़ने के लिए वस्त्र भी मेरे पास हैं, इसी प्रकार खाने के लिए आहार और पीने के लिए पानी भी मिल जाता है, हे आयुष्मन् गुरुदेव ! वर्तमान काल में जो हो रहा है उसे मैं जानता हूँ अर्थात् जैसे आप अधिक पढ़कर भी वर्तमान कालीन भावों को ही जानते हैं और भूतभविष्यत् के अतीन्द्रिय भावों को नहीं जान सकते, वैसे ही वर्तमान काल के भावों को मैं भी जानता हूँ, तो फिर शास्त्र पढ़ कर क्या करूँगा?
उत्तराध्ययन सूत्र - सत्तरहवां अध्ययन
मिल जाता है, भोत्तुं - खाने के लिये, पाउं पीने के लिये, वट्टइ
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विवेचन जब साधु निद्रा, विकथा आदि प्रमाद पूर्वक सुख स्पृहा करके स्वच्छंदाचारी बन जाता है तब पापश्रमणता का प्रारंभ होने लगता है। गुरु या आचार्य द्वारा शास्त्राध्ययन की प्रेरणा किये जाने पर वह सुखशील जीवन जीने वाला साधु अविनयपूर्वक उत्तर देता है कि मुझे अपनी आवश्यकतानुसार आहार, पानी, वस्त्र और स्थान आदि प्राप्त हैं तो फिर मैं क्यों शास्त्राध्ययन में श्रम करूँ ?
पापश्रमण का स्वरूप
जे केइ उ पव्वइए, णिद्दासीले पगामसो ।
भोच्चा पेच्चा सुहं सुवइ, पावसमणे त्ति वुच्चइ ॥ ३ ॥
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कठिन शब्दार्थ - णिद्दासीले निद्राशील, पगामसो अत्यधिक, भोच्चा कर, पेच्चा - पीकर, सुहं सुखपूर्वक, सुवइ सो जाता है, पावसमणे पापश्रमण, वुच्चइ - कहलाता है।
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भावार्थ - जो कोई दीक्षा लेकर बहुत निद्रालु हो जाता है अर्थात् खूब नींद लेता है एवं खूब खा-पीकर सखों से सो जाता है, वह पापश्रमण कहलाता है।
विवेचन श्रमण मुनि के अठारह ही पापों का त्याग होता हैं किन्तु दीक्षा लेने के बाद जो साधु रस लोलुपी बन जाता है। संयम की क्रियाएं यथावत् नहीं करता है तथा पाप स्थानों का सेवन करता है, वह 'पापश्रमण' कहलाता है।
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खा
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