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उत्तराध्ययन सूत्र - सत्तरहवां अध्ययन kakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk
विवेचन - पापश्रमण को इस गाथा में 'पंचकुसील संवुडे' कहा है। जो साधु की समाचारी का बराबर पालन नहीं करता उसे कुशील (संवृत) श्रमण कहते हैं। उसके पांच भेद हैं वे इस प्रकार हैं -
१. पासत्थ (पार्श्वस्थ या पासस्थ) - जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और प्रवचन में सम्यग् उपयोग वाला नहीं है। ज्ञानादि के समीप रहकर भी जो उन्हें अपनाता नहीं है। वह पासस्थ (पार्श्वस्थ) कहलाता है।
२. ओसन्न (अवसन्न) - जो एक पक्ष के अन्दर पीठ फलक आदि बंधन खोल कर उनकी पडिलेहणा नहीं करता अथवा बार-बार सोने के लिए संथारा बिछाये रखता हैं तथा जो स्थापना आदि दोष से दूषित आहार आदि लेता है जो साधु समाचारी का पालन करते हुए थक गया है वह सर्व अवसन्न या देश अवसन्न कहलाता है।
३. कुशील - कुत्सित अर्थात् निंदनीय शील आचार वाले साधु को कुशील कहते हैं। ज्ञान कुशील, दर्शन कुशील व चारित्र कुशील के भेद से यह तीन प्रकार का है।
४. संसक्त - मूल गुण और उत्तर गुण तथा इनके जितने दोष हैं वे सभी जिसमें मिलें रहते हैं। उसे संसक्त श्रमण कहते हैं।
५. यथाच्छन्द - जो अपनी इच्छानुसार उत्सूत्र (सूत्र विपरीत) प्ररूपणा और आचरण करता है ऐसे स्वच्छंदाचारी साधु को यथाच्छन्द कहते हैं।
उपसंहार जे वज्जए एए सया उ दोसे, से सुव्वए होइ मुणीण-मझे। अयंसि लोए अमयं व पूइए, आराहए लोगमिणं तहापरं ॥२१॥ त्तिबेमि॥
कठिन शब्दार्थ - वजए - छोड़ देता है, दोसे - दोषों को, सुव्वए - सुव्रत, मुणीण मज्झे - मुनियों के मध्य में, अमयं व - अमृत की तरह, पूइए - पूजित, लोगमिणं - इस लोक, आराहए - आराधना कर लेता है।
भावार्थ - जो मुनि इन उपरोक्त दोषों को सदा के लिए छोड़ देता है, वह मुनियों में सुव्रतसुंदर व्रत वाला अर्थात् श्रेष्ठ मुनि होता है, इस लोक में अमृत के समान पूजनीय होता है, इस प्रकार इस लोक और परलोक दोनों की वह सम्यक् आराधना करता है। ऐसा मैं कहता हूँ।
॥ इति पापश्रमणीय नामक सत्तरहवां अध्ययन समाप्त॥ ..
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