Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
२६२
****
उत्तराध्ययन सूत्र - पन्द्रहवां अध्ययन
विवेचन - प्रश्न- भिक्षु किसे कहते हैं?
उत्तर - भिक्षु शब्द की व्युत्पत्ति (अन्वर्थ) इस प्रकार की है - " यमनियम व्यवस्थित कृतकारितानुमदितपरिहारेण भिक्षते इत्येवंशीलो भिक्षु' अर्थात् - पांच महाव्रत रूप यम (मूल गुण) तथा पिण्ड विशुद्धि आदि नियम (उत्तर गुण) का जो पालन करता हुआ और आहार आदि के बयालीस (४२) दोष टालकर शुद्ध संयम का पालन करता है, उसे भिक्षु कहते हैं । भिक्षु शब्द की इस व्युत्पत्ति - दूसरे प्रकार से भी की गई है -
" ज्ञान दर्शन चारित्रतया अष्ट प्रकारं कर्म भिनत्ति इति भिक्षुः "
अर्थात् ज्ञान दर्शन चारित्र का पालन कर जो आठ प्रकार के कर्मों का भेदन (विनाशक्षय) करता है, उसको भिक्षु कहते हैं।
-
टीकाकार ने भिक्षुत्व की चौभंगी इस प्रकार बताई है १. सिंह रूप से प्रव्रज्या ग्रहण करना और सिंहवत् पालना २. सिंहरूप से प्रव्रज्या ग्रहण करना किन्तु श्रृगाल रूप से पालन करना ३. श्रृंगाल रूप से दीक्षा ग्रहण करना किन्तु सिंह रूप से उसका पालन करना और ४. श्रृंगाल रूप से दीक्षा लेना और श्रृंगाल रूप से ही उसका पालन करना इस चौभंगी में सर्वोतम भंग है - सिंह रूप से दीक्षा लेना और सिंह रूप से ही निरविचार पूर्वक उसका पालन करना । यही सच्चे भिक्षु का लक्षण है।
-
अण्णायएसी ( अज्ञातैषी) के दो अर्थ है १. अपनी जाति आदि का परिचय दिये बिना ही जो आहार आदि की एषणा करता है २. जिन कुलों में साधु के जाति, कुल, तप, नियम आदि गुणों का परिचय नहीं है उन अज्ञात अपरिचित घरों से भिक्षा की गवेषणा करने वाला ।
सद्भिक्षु के लक्षण
Jain Education International
ओवरयं चरेज्ज लाढे, विरए वेयवियायरक्खिए ।
पणे अभिभूय सव्वदंसी, जे कम्हि वि ण मुच्छिए स भिक्खू ॥ २ ॥
लाढ
कठिन शब्दार्थ - ओवरयं - रागोपरत राग से उपरत (निवृत्त), रात्र्युपरत - रात्रि भोजन से दूर, रात्र्युपरत यानी रात्रि विहार से रहित, चरेज्ज - विचरने वाला, लाढे प्रधान-संयम में तत्पर, सद्नुष्ठान पूर्वक, विरए - विरत, वेयविय वेदविद् - शास्त्रज्ञ - सिद्धान्त का ज्ञाता, आयरक्खिए - आत्मरक्षक, पण्णे प्राज्ञ
हेयोपादेय बुद्धि वाला, अभिभूय -
-
--
********
·
For Personal & Private Use Only
-
-
-
www.jainelibrary.org