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ब्रह्मचर्य-समाधि स्थान - छठा ब्रह्मचर्य समाधि स्थान-पूर्वकृत भोग स्मृति संयम २८१ *AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA*** शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है अथवा उसका ब्रह्मचर्य नष्ट हो जाता है अथवा उन्माद पैदा हो जाता है अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक हो जाता है या वह केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः निर्ग्रन्थ मिट्टी की दीवार के अन्तर से, पर्दे के अन्तर से अथवा पक्की दीवार के अंतर से स्त्रियों के कूजन, रुदन, गीत, हास्य, गर्जन, आक्रन्दन या विलाप के शब्द को न सुने।
विवेचन - स्त्रियों के कामोद्दीपक शब्द सुनकर ब्रह्मचारी साधक का मन ब्रह्मचर्य से उसी तरह विचलित हो जाता है जैसे मेघ गर्जन सुन कर मोर और पपीहे कामोन्मत्त होकर बोलने लगते हैं अतः ब्रह्मचारी को ऐसे स्थान में नहीं रहना चाहिए और न ही ऐसे शब्द कानों में पड़ने पर उसमें रस लेना चाहिए। .. छठा ब्रह्मचर्य समाधि स्थान - पूर्वकृत भोग स्मृति संयम
णो णिगंथे इत्थीणं पुव्वरयं पुव्वकीलियं अणुसरित्ता हवइ से णिग्गंथे। तं कहमिति चे? आयरियाह-णिग्गंथस्स खलु इत्थीणं पुव्वरयं पुव्वकीलियं अणुसरमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुप्पज्जेज्जा भेदं वा लभेज्जा उम्मायं वा पाउणिज्जा दीहकालियं वा रोगायंकं हवेज्जा केवलिपण्णत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा। तम्हा खलु णो णिग्गंथे इत्थीणं पुव्वरयं पुव्वकीलियं अणुसरेज्जा॥६॥ ___ कठिन शब्दार्थ - पुव्वरयं - पूर्व रति, पुव्वकीलियं - क्रीड़ा का पूर्व, अणुसरित्ता - अनुस्मरण। ..
भावार्थ - जो साधु संयम ग्रहण से पूर्व गृहस्थावस्था में स्त्री आदि के साथ किये गए रमण का और पूर्व क्रीड़ा का. अनुस्मरण नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ है। यह क्यों? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं जो पूर्व रति और क्रीड़ा का अनुस्मरण करता है उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश हो जाता है अथवा उन्माद पैदा हो जाता है अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक हो जाता है या वह केवलि प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः निर्ग्रन्थ संयम ग्रहण से पूर्व गृहवास में की गई रति और क्रीड़ा का अनुस्मरण न करे।
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