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उत्तराध्ययन सूत्र - सोलहवां अध्ययन
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६ छठी बाड़ - पूर्वानुभूत भोगों के स्मरण का निषेध हासं किडं रइं दप्पं, सहसावित्तासियाणि य। बंभचेररओ थीणं, णाणुचिंते कयाइ वि॥६॥
कठिन शब्दार्थ - हासं - हास्य, किहुं - क्रीडा, रइं - रति, दप्पं - दर्प (स्त्रियों को मनाने या उनके मान-मर्दन से उत्पन्न गर्व), सहसा - आकस्मिक, अवित्तासियाणि - अवत्रासितत्रास का, कयाइ वि - कदापि, णाणुचिंते - अनुचिंतन न करे।
भावार्थ - ब्रह्मचर्य में रत साधु पहले गृहस्थाश्रम में स्त्रियों के साथ किये गये हास्य, क्रीड़ा, रति-विषय सेवन, दर्प अहंकार और एकदम त्रास उत्पन्न करने के लिए की गई क्रिया इत्यादि का कदापि चिंतन न करे अर्थात् पहले भोगे हुए भोगों का स्मरण.कभी नहीं करे।
सातवीं बाड़ - विकार वद्धक आहार निषेध पणीयं भत्तपाणं तु, खिप्पं मयविवडणं। बंभचेररओ भिक्खू, णिच्चसो परिवज्जए॥७॥ कठिन शब्दार्थ - पणीयं - प्रणीत-गरिष्ठ, खिप्पं - शीघ्र, मयविवणं - मद बढ़ाने वाले।
भावार्थ - ब्रह्मचर्य में रत साधु शीघ्र ही मद (काम) विकार को बढ़ाने वाले गरिष्ठ आहार-पानी को, सदा के लिए वर्जे (त्याग दे)।
८. आठवीं बाड़ - मावा से अधिक आहार का निषेध धम्मलद्धं मियं काले, जत्तत्थं पणिहाणवं। णाइमत्तं तु भुंजेज्जा, बंभचेररओ सया॥८॥
कठिन शब्दार्थ - धम्मलद्धं - धर्मलब्ध - धर्म मर्यादानुसार प्राप्त, पणिहाणवं - प्रणिधानवान् - स्थिरचित्त होकर, मियं - परिमित, अइमत्तं - अति मात्रा में, जत्तत्थं - जीवन यात्रा के लिये। __भावार्थ - सदा ब्रह्मचर्य में रत साधु भिक्षा के समय शुद्ध एषणा से प्राप्त हुए आहार को, चित्त को स्वस्थ रख कर संयम यात्रा के निर्वाह के लिए परिमित मात्रा में भोगवे किन्तु शास्त्रोक्त परिमाण से अधिक आहार नहीं करे।
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