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सभिक्षु - उपसंहार
२७१ ***************kakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करता है तथा समस्त जीवों को अपनी आत्मा के समान देखता हुआ कषायों पर विजय प्राप्त करता है। किसी जीव को पीड़ा नहीं पहुँचाता वह भिक्षु है।
उपसंहार असिप्पजीवी अगिहे अमित्ते, जिइंदिए सव्वओ विप्पमुक्के। अणुक्कसाई लहु अप्पभक्खी, चिच्चा गिहं एगचरे स भिक्खू॥१६॥ त्ति बेमि॥
कठिन शब्दार्थ - असिप्पजीवी - शिल्पजीवी नहीं है, अगिहे - गृह से रहित, अमित्ते - मित्र-शत्रु रहित, जिइंदिए - जितेन्द्रिय, विप्पमुक्के - विप्रमुक्त - परिग्रह से मुक्त, अणुक्कसाई - अणु-कषायी, लहु - लघु, अप्पभक्खी - अल्पभक्षी, गिहं - गृहवास को, एगचरे - एक चर्या।
भावार्थ - शिल्प-कला द्वारा अपना निर्वाह न करने वाला, घरबार से रहित, मित्र एवं शत्रु-रहित (रागद्वेष-रहित), जितेन्द्रिय, सर्वतः विप्रमुक्त-अर्थात् बाह्य और आभ्यंतर बन्धनों से सर्वथा रहित, अल्प कषाय वाला अल्प एवं परिमित आहार करने वाला, द्रव्य और भाव परिग्रह को छोड़ कर रागद्वेष-रहित हो कर जो विचरता है, वह भिक्षु है। ऐसा मैं कहता हूँ। - विवेचन - जैन साधु चित्रकारी, दस्तकारी आदि किसी शिल्प से जीविका नहीं चलाता, उसके कोई अपना घर या आश्रम नहीं होता। प्राणिमात्र के साथ मैत्री भाव होने से उसकी किसी के साथ शत्रुता नहीं होती। वह जितेन्द्रिय और धनादि परिग्रह से सर्वथा मुक्त होता है। जिसकी क्रोध आदि कषायें मंद होती है और जो घर का त्याग कर रागद्वेष से रहित होकर एकाकी भाव में विचरण करता है। वही भिक्षु है।
इस अध्ययन के समान ही दशवैकालिक सूत्र का १०वाँ 'सभिक्षु' नामक अध्ययन भी है, जिसमें भिक्षु के आचार का संक्षिप्त वर्णन किया गया है। अनगार मार्ग' नामक उत्तराध्ययन सूत्र के ३५वें अध्ययन में भी अनगार मार्ग का वर्णन किया गया है जो कि जिज्ञासुओं के लिये दृष्टव्य है।
- ॥ इति सभिक्षु नामक पन्द्रहवां अध्ययन समाप्त॥
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