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सभिक्षु - नीरस आहारादि की निंदा न करने वाला
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जं किंचि आहारपाणगं, विविहं खाइमं-साइमं परेसिं लडं। । ।
जो तं तिविहेण णाणुकंपे, मणवयकाय सुसंवुडे जे स भिक्खू॥१२॥ · कठिन शब्दार्थ - लडं - प्राप्त होने पर, तिविहेण - तीन योगों से, ण अणुकंपे - अनुकम्पा नहीं करता, मण - मन, वय - वचन, काय - काया से, सुसंवुडे - सुसंवृत। - भावार्थ - गृहस्थों के घर से जो कुछ आहार-पानी और अनेक प्रकार के खादिम और स्वादिम प्राप्त करके जो नर (साधु) मन-वचन काया से बाल, वृद्ध और ग्लान साधुओं पर अनुकम्पा करता है अर्थात् उस आहारादि का संविभाग करने के पश्चात् स्वयं आहार करता है जो मन-वचन और काया को वश में रखता है वह भिक्षु है।
इस गाथा में आये हुए 'शाणुकंपे'. का अर्थ टीका में इस प्रकार भी किया है कि भिक्षु द्वारा प्राप्त हुए आहारादि का जो ण - नहीं, अणुकंपे - साथी साधुओं में संविभाग नहीं करता है वह भिक्षु नहीं है, जो संविभाग करता है वह भिक्षु कहलाता है। ऐसा करने में 'न' की पुनरावृत्ति करनी पड़ती है, यह क्लिष्ट कल्पना है। इसलिए पहला अर्थ ही ठीक है क्योंकि दोनों तरह से वही अर्थ है, फिर सरल अर्थ को छोड़ कर क्लिष्ट कल्पना करना व्यर्थ है)। . विवेचन - प्रस्तुत गाथा में कहा गया है कि साधु आहारादि के बदले गृहस्थों का कोई कार्य नहीं करे।
इस गाथा की निम्न दो व्याख्याएं की जाती है - -
१. गृहस्थों से आहारादि प्राप्त करके बदले में उन्हें पुत्र-धन, लौकिक विद्यादि प्राप्ति का आशीर्वाद नहीं देता अथवा बदले में उनका कोई व्यवसायादि या गृहादि से संबंधित कार्य करके उपकार नहीं करता। . २. द्रव्य उपकार सावद्य और स्वार्थ भाव को पुष्ट करने वाला है अतः साधु गृहस्थों का द्रव्य उपकार नहीं करता।
. नीरस आहारादि की निन्दा न करने वाला ... . आयामगं चेव जवोदणं च, सीयं सोवीर जवोदगं च।
णो हीलए पिंडं णीरसं तु, पंत-कुलाई परिव्वए स भिक्खू॥१३॥
कठिन शब्दार्थ - आयामगं - आयामक-ओसामण, जवोदणं - यव का भात, सीयंठण्डा भोजन, सोवीर - कांजी का पानी, जवोदगं - यव-जौ का पानी, ण हीलए - हीलना नहीं करे, पिण्डं - पिण्ड-आहार, णीरसं - नीरस, पंत-कुलाई - प्रान्त कुलों में।
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