Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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सभिक्षु - गृहस्थों से अति परिचय का निषेध
२६७ ************************************************************ के लिए भी न करे-करावे इन सब को ज्ञ-परिज्ञा से जान कर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग देता है वह भिक्षु है।
खत्तियगण-उग्गरायपुत्ता, माहण-भोइय विविहा य सिप्पिणो। णो तेसिं वयइ सिलोग-पूयं, तं परिणाय परिव्वए स भिक्खू॥॥
कठिन शब्दार्थ - खत्तिय - क्षत्रिय, गण - गण, उग्गरायपुत्ता - उग्र कुल के पुत्र (राजपुत्र), माहण - ब्राह्मण, भोइय - भोगिक, सिप्पिणो - शिल्पी, सिलोगपूयं - श्लाघा (प्रशंसा) और पूजा को।
भावार्थ - क्षत्रिय, मल्ल-योद्धा, उग्र-कोतवाल, राजपुत्र, ब्राह्मण, प्रधान और नाना प्रकार के कलाकार इन सब की जो प्रशंसा नहीं करता और पूजा भी नहीं करता किन्तु इन कार्यों को साधुओं के लिए अयोग्य जान कर छोड़ देता है वह भिक्षु है।
विवेचन - उपर्युक्त गाथाओं में साधु द्वारा विद्याएं आदि बता कर आहार आदि प्राप्त करने का निषेध किया गया है। साधु मंत्र, मूल, विविध वैद्यकीय विचार सदोष जान कर त्याग दे। क्योंकि इन विद्याओं के प्रयोग से छोटे बड़े जीवों का आरंभ और संयम में दोष लगने की संभावना है। साधु यदि निःशुल्क चिकित्सा करेगा तो लोगों की भीड़ बनी रहेगी फलस्वरूप ज्ञान, ध्यान नहीं हो पायेगा और संयम पालन में बाधा आयेगी। अतः विवेकी साधु इन विद्याओं को सदोष जानकर त्याग कर दे।
..' गृहस्थों से अति परिचय का निषेध गिहिणो जे पव्वइएण दिट्ठा, अपव्वइएण व संथुया हविजा। तेसिं इह-लोइय-फलट्ठा, जो संथवं ण करेइ स भिक्खू॥१०॥
कठिन शब्दार्थ - गिहिणो - गृहस्थों को, पव्वइएण - प्रव्रजित होने के बाद, दिट्ठा - देख कर, अपव्वइएण - अप्रव्रजित अवस्था, (गृहस्थावास) में, संथुया - परिचित, हविज्जा- हुए हों; इहलोइय - इस लोक के, फलट्ठा - फल प्राप्ति के लिए, संथवं - संस्तव-विशेष परिचय।
भावार्थ - प्रव्रजित - दीक्षा लेने के पश्चात् जिन गृहस्थों को देखने का प्रसंग आया हो और जिनके साथ परिचय हुआ हो अथवा अप्रव्रजित - गृहस्थावस्था में रहते समय जिन गृहस्थों के साथ संस्तुत-परिचय हुआ हो इस प्रकार दोनों अवस्था में परिचय में आने वाले
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