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भिक्षु - विविध विद्याओं से आजीविका न करने वाला
लक्षण विद्या, दंड
विविध विद्याओं से आजीविका न करने वाला छिण्णं सरं भोममंतलिक्खं, सुमिणं लक्खण-दंड- वत्थुविज्जं । अंगवियारं सरस्स विजयं, जे विज्जाहिं ण जीवइ स भिक्खू ॥७॥ कठिन शब्दार्थ छिण्णं - छिन्न विद्या, सरं स्वर विद्या, भोमं - भौम (भूकम्प ) विद्या, अंतलिक्खं - अंतरिक्ष विद्या, सुमिणं - स्वप्न विद्या, लक्खण दण्ड विद्या, वत्थुविज्जं - वास्तु विद्या, अंगवियारं अंग विकार विद्या, सरस्स विजयं स्वर विजय विद्या, विज्जाहिं - विद्याओं से, ण जीवइ आजीविका नहीं करता । भावार्थ - छिन्न- वस्त्र - काष्ठादि छेदने की विद्या, 'स्वर विद्या, भूकम्प विद्या, अन्तरिक्षआकाश सम्बन्धी विद्या, स्वप्न- विद्या (स्वप्नों का फल बताने वाली विद्या), लक्षण शरीर के लक्षणों द्वारा सुख-दुःख बताने वाली विद्या, दंड-विद्या, वास्तु-विद्या, मकान बनाने की विद्या, अंग- स्फुरण के शुभाशुभ फल बताने वाली विद्या और पशु-पक्षियों की बोली जानने की विद्या इन कुत्सित एवं निन्दित विद्याओं से जो अपनी आजीविका नहीं करता है वह भिक्षु है ।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में यह स्पष्ट किया गया है कि: संयमी साधु विविध लौकिक विद्याओं का अपनी आजीविका चलाने में उपयोग नहीं करे। इस गाथा में निम्न दस प्रकार की विद्याओं का कथन किया गया है -
१. छिन्न विद्या
या पात्र के कटे भाग एवं छिद्र को देख कर शुभाशुभ का
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ज्ञान करना ।
२. स्वर विद्या षट्ज आदि स्वरों से मनुष्य की पहचान करना या संगीत के स्वर को पहचानना, नासिका के दक्षिण भाग से चलने वाली वायु से तीन नाड़ियों में से कौनसी नाड़ी चल रही है और कौनसी नाड़ी में कौनसा कार्य करना लाभकारी होता है, इसका ज्ञान करना। ३. भौम विद्या - भूमि में कहां कौनसी वस्तु मिल सकती है? आदि रूप से भूमि का
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लाभालाभ समझना ।
४. अंतरिक्ष विद्या आकाश के ग्रह नक्षत्र और तारों की गति से वर्ष और समय का शुभाशुभ रूप जानना ।
५. स्वप्न विद्या - स्वप्न के द्वारा शुभाशुभ फल को जानना ।
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