Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र - पन्द्रहवां अध्ययन aakaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaa**
६. लक्षण विद्या - स्त्री पुरुष और हाथी घोड़े आदि के शरीरस्थ मष-तिलक और रेखाओं से शुभाशुभ जानना।
७. दण्ड विद्या - कैसा दण्ड लाभकारी होता है, कितनी गांठ वाला क्या फल देता है आदि जानकारी देने वाली दण्ड विद्या कहलाती है।
८. वास्तु विद्या - भवन निर्माण संबंधी जानकारी, मकान में रसोई घर, शयन घर आदि कहां रखना शुभ और कहां रखना अशुभ होता है इसका ज्ञान करना। .
६. अंगविचार विद्या - हाथ, पांव, आंख, ललाट आदि अंगों के फड़कने (स्फुरण) के शुभाशुभ फल का विचार करना।
१०. स्वर विजय विद्या - पशुपक्षियों की आवाज से शुभाशुभ फल बताने वाली विद्या।
तप संयम के प्रभाव से साधु को कई प्रकार की विद्याएं हो जाती हैं किंतु निस्पृह साधक इन विद्याओं का उपयोग अपनी आजीविका चलाने में, लोगों को आश्चर्यचकित करने आदि के लिए इनका उपयोग नहीं करता क्योंकि वह इन्हें पापसूत्र मानता है।
दशवैकालिक सूत्र अध्ययन ८ गाथा ५१ में कहा गया है कि - मुनि नक्षत्र, स्वप्न योगदो वस्तुओं का संयोग, भूत-भविष्य के निमित्त मंत्र और भेषज-औषध स्वयं जान कर भी गृहस्थ को नहीं बतावे। इससे प्रतीत होता है कि मुनि के लिये इन विद्याओं को जानना और . संघ हित के लिए शिष्यादि को बताना निषिद्ध नहीं है।
मंत्रादि से चिकित्सा निषेध मंतं मूलं विविहं वेजचिंतं, वमण-विरेयण-धूमणेत्त-सिणाणं।
आउरे सरणं तिगिच्छियं च, तं परिणाय परिव्वए स भिक्खू॥८॥ . कठिन शब्दार्थ - मंतं - मंत्र, मूलं - मूल, विविहं - विविध प्रकार के, वेज्जचिंतं - वैद्यकीय चिंतन, वमण - वमन, विरेयण - विरेचन, धूम - धूम, णेत्त - नैत्रोषधि, सिणाणंस्नान, आउरे - आतुर, सरणं - स्मरण, तिगिच्छियं - चिकित्सा, परिण्णाय - परिज्ञा से अर्थात् ज्ञ परिज्ञा से जान कर और प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग कर, परिव्वए - संयम मार्ग में विचरे।
भावार्थ - मंत्र-तंत्रादि का प्रयोग, मूल - जड़ी-बूटी, अनेक प्रकार के वैद्यक प्रयोग, वमन, विरेचन, धूम्र प्रयोग, आँख का अञ्जन, स्नान, रोग से पीड़ित होने पर 'हा मात! हा तात!' इत्यादि विलाप करना और चिकित्सा इत्यादि प्रयोग जो अपने लिए नहीं करे तथा दूसरों
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