Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र - पन्द्रहवां अध्ययन AMANARTHAKRAMMARRAMMARRAMMARRAMMARY गृहस्थों के साथ इहलौकिक फल की प्राप्ति के लिए जो संस्तव-विशेष परिचय नहीं करता है वह भिक्षु है।
विवेचन - प्रस्तुतः गाथा में साधु साध्वियों का गृहस्थों से विशेष परिचय नहीं करने का निर्देश किया गया है क्योंकि 'संसर्गजा दोष गुणा भवंति' इस न्याय के अनुसार अगर साधु गृहस्थों से अत्यधिक संसर्ग करेगा तो उसमें रागवृद्धि होने से चारित्र के गुणों में हानि होने की संभावना है। अति संसर्ग होने से ज्ञानध्यान में बाधा पड़ेगी, जप-तप की साधना भंग होगी और कदाचित् संयम से पतन भी हो जाय अतः कहा गया है कि - "गिहि संथवं ण कुज्जा कुज्जा साहूहिं संथवं" अर्थात् गृहस्थों से अधिक परिचय न करे, साधुओं के साथ ही परिचय करे ताकि संयम और त्याग, तप में वृद्धि हो।
रागद्वेष-त्याग सर्यणासणपाणभोयणं, विविहं खाइम-साइमं परेसिं। अदए पडिसेहिए णियंठे, जे तत्थ ण पउस्सइ स भिक्खू॥११॥
कठिन शब्दार्थ - सयणासण - शयन आसन, पाण - पान, भोयणं - भोजन, खाइम-साइमं - खादिम-स्वादिम,. परेसिं - गृहस्थों के, अदए - न देने से, पडिसेहिए - निषेध कर दे, णियंठे - निग्रंथ, ण पउस्सइ - द्वेष नहीं करता है।
भावार्थ - शय्या, आसन, पानी और आहार तथा अनेक प्रकार के खादिम और स्वादिम पदार्थ गृहस्थ के घर में रहे हुए हों, किन्तु मुनि द्वारा उन पदार्थों की याचना करने पर भी यदि वह न दे और मना कर दे तो भी जो निर्ग्रन्थ मुनि उस गृहस्थ पर द्वेष न करे, वह भिक्षु है।
विवेचन - यदि किसी गृहस्थ के यहां प्रचुर मात्रा में शयन आसन आदि तथा अशन, पान, खादिम, स्वादिम उपलब्ध हो और वह साधु को नहीं देता है, सकारण मांगने पर भी मना कर देता है अथवा टालमटूल करता है या इस प्रकार निषेध कर देता है कि अरे साधु! हमारे यहां क्यों आया, यहां मत आना, तो भी साधु मन में द्वेष भाव न लाये। यह नहीं सोचे कि इसके घर में प्रचुर सामग्री होते हुए भी यह दान नहीं देता है, मेरे द्वारा मांगने पर भी मुझे इंकार करता है। धिक्कार है इस दुष्ट को! इस प्रकार के विचार जो मन में भी नहीं लाता है, दाता (गृहस्थ) पर द्वेष नहीं करता है वही सच्चा भिक्षु है। . .... .
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