Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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इषुकारीय - रागद्वेषाग्नि से संसार जल रहा है
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- भावार्थ - हे राजन्! जब मृत्यु का समय आयेगा तब इन मनोहर कामभोगों को छोड़ कर अवश्य मरना होगा, हे नरदेव! इस संसार में निश्चय ही मृत्यु के समय एक धर्म ही शरण रूप होगा, अन्य कोई भी पदार्थ शरण रूप नहीं होगा।
कमलावती की प्रव्रज्या की भावना णाहं रमे पक्खिणी पंजरे वा, संताण-छिण्णा चरिस्सामि मोणं। अकिंचणा उजुकडा णिरामिसा, परिग्गहारंभ-णियत्तदोसा॥४१॥
कठिन शब्दार्थ - ण रमे - आनंद नहीं पाती, पक्खिणी - पक्षिणी, पंजरे - पिंजरे में, संताणछिण्णा - स्नेह बंधनों को तोड़ कर, चरिस्सामि - आचरण करूंगी, मोणं - मुनि धर्म का, अकिंचणा - अकिंचन - परिग्रह रहित, उज्जुकडा - ऋजुकृत - सरल-शल्यादि रहित, णिरामिसा - विषयभोगों में अनासक्त, परिग्गहारंभ णियत्तदोसा - परिग्रह और आरंभ के दोषों से निवृत्त होकर। ...
भावार्थ - रानी पुनः राजा से कहती हैं कि राजन्! जैसी पक्षिणी पिंजरे में आनंद नहीं पाती उसी प्रकार राज्य सुखों से परिपूर्ण इस अन्तःपुर रूपी पिंजरे में मैं भी आनंद नहीं मानती हूँ, इसलिए स्नेह बन्धनों को तोड़ कर आरम्भ और परिग्रह रूपी दोषों से निवृत्त हो कर एवं द्रव्य-भाव से परिग्रह-रहित हो कर तथा कामभोगादि की लालसा रहित हो कर सरल स्वभावी बन कर मैं संयम स्वीकार करूंगी।
रागद्वेषाग्नि से संसार जल रहा है दवग्गिणा जहा रण्णे, डज्झमाणेसु जंतुसु। अण्णे सत्ता पमोयंति, रागद्दोसवसं गया॥४२॥ .. एवमेव वयं मूढा, कामभोगेसु मुच्छिया। डज्झमाणं ण बुज्झामो, रागसग्गिणा जगं॥४३॥
कठिन शब्दार्थ - दवग्गिणा - दावानल से, जहा - जैसे, रणे - अरण्य में, डज्झमाणेसु - जलते हुए, जंतुसु - जंतुओं को, अण्णे - अन्य, सत्ता - जीव, पमोयंति - प्रसन्न होते हैं, रागद्दोसवसं गया - राग द्वेष के वश होकर, मूढा - मूढ, मुच्छिया -
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