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उत्तराध्ययन सूत्र - तेरहवां अध्ययन
धर्माचरण न करने वालों के लिए हानि
अशाश्वत,
इह जीविए राय ! असासयम्मि, धणियं तु पुण्णाई अकुव्वमाणो । से सोय मच्चुमुहोवणीए, धम्मं अकाऊण परम्मि लोए ॥ २१ ॥ कठिन शब्दार्थ - जीविए - जीवन में, राय हे राजन्!, असासयम्मि धणियं - अधिक, पुण्णाई - पुण्य कर्म, अकुव्वमाणो - नहीं करता हुआ, सोयइ - शोक करता है, मच्छु - मृत्यु के, मुहोवणीए - मुख में पहुँचने पर, धम्मं - धर्म के, अकाऊण बिना किये, परम्मि लोए - परलोक में ।
भावार्थ - हे राजन् ! इस अशाश्वत जीवन में जो व्यक्ति अतिशय रूप पुण्य कर्म नहीं करने वाला है वह धर्म का आचरण न कर मृत्यु मुख में प्राप्त हो कर परलोक विषयक शीक करता है कि हाय! मैंने धर्म का आचरण नहीं किया, इसी प्रकार दुर्गति में दुःख भोगते हुए भी उसे धर्माचरण न करने के लिए सदा पश्चात्ताप होता रहता है।
विवेचन - इस अशाश्वत मानव जीवन में धर्म नहीं करने वाला व्यक्ति मृत्यु के आगमन पर और परलोक में पश्चात्ताप करता है।
के समय कोई रक्षक नहीं
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मृत्यु
जह सीहो व मियं गहाय, मच्चू णरं णेइ हु अंतकाले ।
ण तस्स माया व पिया व भाया, कालम्मि तम्मंसहरा हवंति ॥ २२ ॥
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इस लोक में, सीहो- सिंह, मियं - मृग को,
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गहाय
पकड़ कर, मच्चू
कठिन शब्दार्थ - जहा जैसी, इह मृत्यु, णरं मनुष्य को, णेइ - ले जाती है, अंतकाले अंत समय में, माया माता, पिया - पिता, भाया भाई, कालम्मि - अंत समय में, अंसहरा - अंशधर ।
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भावार्थ - जिस प्रकार यहाँ लोक में सिंह, मृग को पकड़ कर ले जाता है इसी प्रकार अंत समय में मृत्यु भी मनुष्य को निश्चय ही परलोक में ले जाती है अर्थात् जैसे मृग, सिंह से पकड़ा जाने पर अपने को नहीं बचा सकता, उसी प्रकार मृत्यु का ग्रास होने पर मनुष्य भी अपने को नहीं बचा सकता, उस समय उसके माता अथवा पिता अथवा भाई उसके जीवन की रक्षा के लिए अपने जीवन का अंश देने वाले नहीं होते हैं।
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