________________
२२८ *******★★
मृत्यु
के पश्चात् शरीर की गति
तं इक्कगं तुच्छ - सरीरगं से, चिड़गयं दहिउं पावगेणं ।
भज्जा य पुत्ता वि य णायओ य, दायार-मण्णं अणुसंकमंति ॥ २५ ॥
कठिन शब्दार्थ - इक्कगं - एकाकी, तुच्छ - तुच्छ, सरीरगं - शरीर को, चिड़गयं चिता पर रखे हुए, दहिउं ज़ल कर, पावगेणं - अग्नि से, भज्जा भार्या, पुत्तावि - पुत्र भी, णायओ - जाति के लोग, अण्णं- अन्य, दायारं - दातार आश्रय दाता का, अणुसंकमंति
अनुसरण करते हैं।
भावार्थ
उस परभव में गये हुए जीव के अकेले (जीव रहित हुए) उस असार शरीर को चिता में रख कर और पावक अर्थात् अग्नि के द्वारा जला कर ज्ञाति वाले स्त्री और पुत्र भी दूसरे दाता का अर्थात् इष्ट वस्तुओं का संपादन एवं स्वार्थ की पूर्ति कराने वाले व्यक्ति का अनुसरण करते हैं और मृतात्मा को याद तक नहीं करते ।
विवेचन प्रस्तुत गाथा में संसार की अनित्यता, स्वार्थ परायणता और इस शरीर की अंतिम दशा का बहुत ही सुंदर चित्रण किया गया है।
धर्माचरण का उपदेश
-
-
Jain Education International
उत्तराध्ययन सूत्र - तेरहवां अध्ययन
********
-
उवणिज्जइ जीवियमप्पमायं, वण्णं जरा हरड़ णरस्स रायं !
पंचालराया! वयणं सुणाहि, मा कासी कम्माई महालयाई ॥ २६ ॥ कठिन शब्दार्थ - उवणिजइ
चला जा रहा है, जीवियं जीवन, अप्पमायं वर्ण का, जरा प्रमाद रहित, वण्णं वृद्धावस्था, हरइ वयणं - वचन को, सुणाहि - सुन, महालयाई - महाहिंसक ।
अप्रमाद
हरण करती है,
भावार्थ - चित्त मुनि कहते हैं कि हे राजन्! यह जीवन बिना प्रमाद के अर्थात् आवीचिमरण द्वारा निरन्तर मृत्यु के समीप ले जाया जा रहा है अर्थात् हम प्रतिक्षण मृत्यु के अधिकाधिक समीप पहुँच रहे हैं। बुढ़ापा मनुष्य का वर्ण (शरीर की कान्ति का) हरण करता है, शरीर की कान्ति को क्षीण करता है) । हे पांचाल देश के राजन्! मेरा वचन सुनो और महान् कर्म बंध कराने वाले महारम्भ आदि कर्म मत करो।
-
-
-
For Personal & Private Use Only
-
-
www.jainelibrary.org