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चित्तसंभूतीय - आर्य कर्म करने की प्रेरणा
२३१ Akakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkke
कामभोगों की अनित्यता अच्चेइ कालो तूरंति राइओ, ण यावि भोगा पुरिसाण णिच्चा। . उविच्च भोगा पुरिसं चयंति, दुमं जहा खीणफलं व पक्खी॥३१॥
कठिन शब्दार्थ - अच्चेइ - व्यतीत हो रहा है, तूरंति - शीघ्र जा रही है, राइओ - रात्रियाँ, पुरिसाण- मनुष्यों के, ण णिच्चा - नित्य नहीं हैं, उविच्च - प्राप्त हो कर, चयंतिछोड़ देते हैं, दुमं - वृक्ष को, खीणफलं - क्षीण फल वाले, पक्खी - पक्षी। ____ भावार्थ - अनित्यता दिखाने के लिए मुनि फिर कहने लगे - समय बीत रहा है, रात्रियाँ त्वरित गति से जा रही हैं और पुरुषों के भोग भी नित्य नहीं है। ये भोग पुरुष के पास स्वतः ही आ कर फिर उसे छोड़ देते हैं जिस प्रकार फल रहित हुए वृक्ष को पक्षी छोड़ देते हैं।
विवेचन - यहाँ वृक्ष के फल के समान पुण्य है और पक्षी के समान भोग हैं। जैसे फल नष्ट हो जाने पर पक्षी वृक्ष को छोड़ देते हैं, उसी प्रकार पुण्य नष्ट हो जाने पर भोग भी जीव को छोड़ देते हैं।
आर्य कर्म करने की प्रेरणा जइ तं सि भोगे चइडं असत्तो, अजाई कम्माई करेहि रायं!। धम्मे ठिओ सव्वपयाणुकंपी, तो होहिसि देवो इओ विउव्वी॥३२॥
कठिन शब्दार्थ - चइडं - छोड़ने में, असत्तो - असमर्थ, अजाइं- आर्य, कम्माईकर्म, करेहि - कर, ठिओ - स्थित होकर, सव्वपयाणुकंपी - सर्व प्रजा (जीवों) पर अनुकम्पा करने वाला, होहिसि - हो सकेगा, देवो - देव, विउव्वी - वैक्रिय शरीर वाला।
भावार्थ - हे राजन्! यदि तुम भोगों का त्याग करने में अशक्त हो तो तुम धर्म में स्थिर हो कर सभी प्राणियों पर अनुकंपा रखते हुए आर्य कर्म करो, ऐसा करने से तुम यहां से मर कर वैक्रिय शरीरधारी देव हो जाओगे। ' : विवेचन - प्रस्तुत गाथा में गृहस्थ धर्म और राजधर्म दोनों धर्मों के फल का भलीभांति दिग्दर्शन कराया गया है।
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