________________
२३८
. उत्तराध्ययन सूत्र - चौदहवां अध्ययन kakkakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk***************************
कठिन शब्दार्थ - असासयं - अशाश्वत, दडु - देखकर, इमं - इस, विहारं - मनुष्य भव को, बहुअंतरायं - अनेक अंतरायों वाला, ण दीहमाउं - दीर्घ आयुष्य नहीं, तम्हा - इसलिए, गिहंसि - घर में रई - रति-आनंद को, ण लभामो - नहीं पा रहे हैं, आमंतयामोआप से पूछते हैं, चरिस्सामु - आचरण करेंगे, मोणं - मुनिव्रत को।
भावार्थ - यह मनुष्य जीवन अनित्य एवं क्षण-भंगुर हैं, आयुष्य बहुत थोड़ा है और उसमें भी बहुत विघ्न-बाधाएं हैं, इसलिए इन सब बातों को देख कर हे पिताजी! अब हमको गृहस्थावास में आनंद प्राप्त नहीं होता, अतः हम मुनि वृत्ति को ग्रहण करेंगे, इसके लिए आपकी आज्ञा चाहते हैं।
अह तायगो तत्थ मुणीण तेसिं, तवस्स वाघायकर वयासी। इमं वयं वेयविओ वयंति, जहा ण होइ असुयाण लोगो॥८॥
कठिन शब्दार्थ - तायगो - पिता ने, मुणीण - भाव मुनियों के, तवस्स - तप में, वाघायकरं - व्याघात करने वाले वचन, वयासी - कहे, वयं - वचन, वेयविओ - वेदों के ज्ञाता, असुयाण - पुत्र रहितों का, लोगो - परलोक।
भावार्थ - इस प्रकार पुत्रों के आज्ञा मांगने पर उस समय उनका पिता भृगु पुरोहित उन भाव-मुनियों के तप-संयम में विघ्न करने वाला यह वचन कहने लगा कि - 'हे पुत्रो! वेद को जानने वाले पण्डित पुरुष इस प्रकार कहते हैं कि पुत्र-रहित पुरुषों को उत्तम गति की प्राप्ति नहीं होती।
अहिज वेए परिविस्स विप्पे, पुत्ते परिठप्प गिहंसि जाया! भुच्चाण भोए सह इत्थियाहिं, आरण्णगा होह मुणी पसत्था॥६॥
कठिन शब्दार्थ - अहिज - अध्ययन कर, वेए - वेदों का, परिविस्स - भोजन देकर, विप्पे - ब्राह्मणों को, पुत्ते - पुत्रों को, परिठप्प - स्थापना करके, गिहंसि - घर में, जायाहे पुत्रो!, भुच्चाण - भोग कर, भोए - भोगों को, सह - साथ, इत्थियाहिं - स्त्रियों के, आरण्णगा - आरण्यक, मुणी - मुनि, पसत्था - प्रशस्त (श्रेष्ठ)।
भावार्थ - इसलिए हे पुत्रो! वेदों को पढ़कर ब्राह्मणों को भोजन करा कर तथा स्त्रियों के साथ भोग भोग कर और पुत्रों को घर का भार सौंप कर फिर तुम वन-वासी प्रशस्त (उत्तम) मुनि बन जाना।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org