Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र - चौदहवां अध्ययन *************************************************************
अजेव धम्म पडिवजयामो, जहिं पवण्णा ण पुणब्भवामो। अणागयं णेव य अस्थि किंचि, सद्धाखमं णे विणइत्तु रागं॥२८॥ ...
कठिन शब्दार्थ - अजेव - आज ही, धम्म - धर्म को, पडिवजयामो - अंगीकार करेंगे, जहिं - जिस धर्म को, पवण्णा - स्वीकार करके, ण पुणभवामो - फिर जन्म नहीं लेना पड़े, अणागयं - अनागत - अप्राप्त (अभुक्त), णेव - नहीं, अवि - है, किंधि - कोई भी, सद्धाखमं - श्रद्धा को सक्षम कर, विणइत्तु - दूर कर, रागं - राम को।
भावार्थ - इसलिए हे पिताजी! जिस धर्म को स्वीकार करके फिर जन्म ही न लेना पड़े ऐसे साधु-धर्म को हम आज ही अंगीकार करेंगे और इस संसार में ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है जो इस जीव को प्राप्त न हुआ हो। अतः राग-भाव को दूर करके, धर्म में श्रद्धा रखना एवं साधु धर्म को अंगीकार करना हमारे लिए श्रेष्ठ है।
विवेचन - गृहवास में विषय सुख भोग कर वृद्धावस्था में प्रव्रजित होने के पिताजी के प्रस्ताव को सुन कर पुत्रों ने सशक्त प्रतिवादात्मक समाधान करते हुए कहा कि - मृत्यु का कोई भरोसा नहीं है कि कब आ धमके अतः वृद्धावस्था तक प्रतीक्षा नहीं की जा सकती। पता नहीं वृद्धावस्था आएगी भी या नहीं? अतः हम सबको आज ही प्रव्रजित हो जाना चाहिये। .
आप भोग, भोग कर प्रव्रजित होने का कह रहे हैं किन्तु कोई भी विषय सुख ऐसा नहीं है जो इस जीव ने पूर्व में नहीं भोगा हो, सभी विषय सुख उपभुक्त हैं अतः पूर्व में भोगे हुए जूठे भोगों के पुनः सेवन करने की लालसा श्रेयस्कर नहीं है।।
पुत्रों का सटीक समाधान पा कर भृग पुरोहित प्रतिबुद्ध हो गया। अब वह अपनी पत्नी को प्रतिबोधित करने का प्रयास करता है जो आगे की गाथाओं में वर्णित है।
पुत्रों के बिना मेरा गृहवास अनुचित पहीण-पुत्तस्स हु णत्थि वासो, वासिट्ठि!भिक्खायरियाइ कालो।
साहाहि रुक्खो लहइ समाहिं, छिण्णाहि साहाहि तमेव खाj॥२९॥ ___ कठिन शब्दार्थ - पहीणपुत्तस्स - पुत्रों के बिना, हु णत्थि - हर्गिज नहीं, वासो - बसना, वासिहि - हे वाशिष्ठि, भिक्खायरियाइ - भिक्षाचर्या का, कालो - काल, साहाहिशाखाओं से, रुक्खो - वृक्ष, लहइ - पाता है, समाहिं - समाधि-शोभा, छिण्णाहि - कट जाने पर, तमेव - उसी वृक्ष को, खाणुं - स्थाणु - ढूंठ।
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