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उत्तराध्ययन सूत्र - चौदहवां अध्ययन kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk
छिदित जालं अबलं व रोहिया, मच्छा जहा कामगुणे पहाय। धोरेय-सीला तवसा उदारा, धीरा हु भिक्खायरियं चरंति॥३५॥
कठिन शब्दार्थ - छिदित्तु - तोड़ कर (काट कर), जालं - जाल को, अबलं - कमजोर, रोहिया - रोहित जाति का, मच्छा - मत्स्य, पहाय - छोड़ कर, धोरेयसीला - धौरी वृषभ के समान स्वभाव वाले, तवसा - तपस्वी, उदारा - प्रधान, धीरा - धीर,, भिक्खायरियं - भिक्षाचर्या को, चरंति - आचरते हैं।
- भावार्थ - उपरोक्त कथन सुन कर यशा अपने मन में विचार करने लगी कि जिस प्रकार रोहित जाति के मच्छ जीर्ण जाल को तोड़ कर उससे निकल कर भाग जाता उसी प्रकार ये सब लोग काम-भोगों को छोड़ कर जा रहे हैं और जैसे जातिवंत बैल रथ के भार को अपने कंधों पर उठाते हैं उसी प्रकार ये धीर और गंभीर पुरुष तपश्चर्या और भिक्षाचर्या को संयम मार्ग को अंगीकार करने के लिए उद्यत हो रहे हैं।
विवेचन - उपरोक्त दोनों गाथाओं में भृगु पुरोहित अपनी पत्नी द्वारा प्रस्तुत शंकाओं का समाधान करते हुए कहते हैं कि जैसे सांप कांचली (केंचुली) छोड़ कर उन्मुक्त मन से चला जाता है वापिस मुड़ कर भी नहीं देखता उसी प्रकार मेरे दोनों पुत्र युवावस्था में कामभोगों को छोड़ कर दीक्षित हो रहे हैं तो क्या मैं भुक्त भोगी होकर भी उनका अनुसरण नहीं कर सकता? ।
जैसे रोहित मत्स्य कमजोर जाल को काट कर उससे बाहर निकल जाता है उसी प्रकार मैं भी कामगुणों की जाल को काट कर संयम पथ पर आसानी से चल सकता हूँ। मेरे लिए भिक्षाचर्या पथ कुछ भी कठिन नहीं है।
पुरोहित पत्नी दीक्षा लेने को तैयार णहेव कुंचा समइक्कमंता, तयाणि जालाणि दलित्तु हंसा। . 'पलिंति पुत्ता व पई य मझं, ते हं कह णाणुगमिस्समेक्का?॥३६॥
कठिन शब्दार्थ - णहेव - आकाश में, कुंचा - क्रोंच पक्षी, समइक्कमंता - स्वतंत्र उड़ जाते हैं, तयाणि - विस्तीर्ण, जालाणि - जालों को, दलित्तु - काट कर, पलिंति - जा रहे हैं, पुत्ता - पुत्र, पई - पति, मनं - मेरे, कहं ण - क्यों नहीं, अणुगमिस्सं • अनुगमन करूँ, एक्का हं- मैं अकेली।
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