Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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चित्तसंभूतीय - निदान की भयंकरता
२२६ ********kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk
विवेचन - जितना समय व्यतीत हो चुका है उतनी ही इस जीव की मृत्यु निकट आ गई। काल का चक्र निरन्तर चल रहा है, आयु प्रतिक्षण क्षय होती जा रही है। शरीर में जरा के आगमन से दुर्बलता और क्षीणता का समावेश होता चला जा रहा है। अतः हे राजन्! मेरे वचनों को श्रद्धा पूर्वक सुन कर तुम महाहिंसक कर्म का त्याग क्यों नहीं कर देते?
अहं वि जाणामि जहेह साहू, जं मे तुमं साहसि वक्कमेयं। भोगा इमे संगकरा हवंति, जे दुजया अजो! अम्हारिसेहिं॥२७॥
कठिन शब्दार्थ - जाणामि - जानता हूँ, जहा - जैसे, इह - इस संसार में, साहसिकहे हैं, वक्कं - वाक्य, संगकरा - बंधन कारक, हवंति - होते हैं, अज्जो - आर्य, अम्हारिसेहिं - हमारे जैसों को तो, दुजया - दुर्जय। ... भावार्थ - मुनि का उपदेश सुन कर चक्रवर्ती बोले - हे साधो! जिस प्रकार इस संसार में होता है और यह वचन, जो आप मुझे कह रहे हो उसे मैं भी जानता हूँ किन्तु हे आर्य! ये भोग (शब्दादि विषय) मेरे लिए, प्रतिबंध उत्पन्न करने वाले हो रहे हैं, जो मुझ जैसे लोगों के लिए दुर्जय हैं (इन भोगों पर विजय पाना मेरे लिए दुष्कर है)। मैं इन काम भोगों का त्याग करने में असमर्थ हूँ।
विवेचन - चित्त मुनि का उपदेश सुन कर ब्रह्मदत्त अपनी विवशता (असमर्थता) प्रकट करते हुए कहते हैं कि - "मैं इन विषयभोगों की असारता, दुष्टता और मोहकता को जानता हुआ भी इनका परित्याग करने में समर्थ नहीं हूँ, ये काम भोग मेरे लिए दुर्जय है।'
.. निदान की भयंकरता .. हत्थिणपुरम्मि चित्ता!, दट्ठणं णरवई महिड्डियं। कामभोगेसु गिद्धेणं, णियाणमसुहं कडं॥२८॥
कठिन शब्दार्थ - हत्थिणपुरम्मि - हस्तिनापुर में, द₹णं - देख कर, णरवई - नरपति (चक्रवर्ती), गिद्धेणं - आसक्त होकर, णियाणं - निदान, असुहं - अशुभ, कडं - किया था। ___ भावार्थ - हे चित्त! हस्तिनापुर में महाऋद्धिशाली सनत्कुमार नामक चक्रवर्ती को तथा उसकी ऋद्धि एवं उसकी श्रीदेवी को देख कर काम भोगों में आसक्त बने हुए मैंने अशुभ निदान किया था।
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