________________
चित्तसंभूतीय - चक्रवर्ती द्वारा मुनि को भोगों का आमंत्रण
२२३ kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk
कठिन शब्दार्थ - पहेहिं - नाटकों से, गीएहि - गीतों से, वाइएहिं - वाद्यों से, णारीजणाहिं - नारी जनों के, परिवारयंतो - परिवार से घिरे हुए, भुंजाहि - भोगों, मम - मुझे, रोयइ - रुचता है, पव्वजा - प्रव्रज्या, दुक्खं - दुःख रूप।
भावार्थ - हे भिक्षुक! नाट्य अथवा नृत्य, गीत और वादिंत्र में दक्ष ऐसी स्त्रियों के परिवार से युक्त होकर इन भोगों का उपभोग करो। प्रव्रज्या मुझे निश्चय ही दुःखकारी प्रतीत होती है।
विवेचन - ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती चित्तमुनि से कहते हैं कि - हे मुने! आप इन कामभोगों को भोगो। ये मुझे रुचते है किन्तु आपका प्रव्रज्या ग्रहण करना मुझे अत्यन्त दुःख रूप प्रतीत होता है।
इस प्रकार विषयजन्य लौकिक सुखों के लिए स्नेह पूर्वक आमंत्रित करने पर उक्त मुनि ने जो प्रवृत्ति अंगीकार की, अब उसी का सूत्रकार दिग्दर्शन कराते हैं -
तं पुव्वणेहेण कयाणुरागं, णराहिवं कामगुणेसु गिद्धं । धम्मस्सिओ तस्स हियाणुपेही, चित्तो इमं वयण-मुदाहरित्था॥१५॥
कठिन शब्दार्थ - पुव्वणेहेण - पूर्व स्नेह से, कयाणुरागं - कृतानुराग-अनुरक्त, णराहिवंनराधिप को, कामगुणेसु - काम गुणों में, गिद्धं - गृद्ध (आसक्त) धम्मस्सिओ - धर्म में स्थिर, हियाणुपेही - हितानुप्रेक्षी - हित की चाहना करने वाला, वयणं - वचन, उदाहरित्थाकहने लगा। ...
भावार्थ - पूर्वजन्म के स्नेह वश अनुराग करने वाले और शब्दादि काम-गुणों में आसक्ति वाले उस चक्रवर्ती से धर्म में स्थित और उस चक्रवर्ती का हित चाहने वाले चित्त मुनि इस प्रकार वचन कहने लगे।
विवेचन - यद्यपि ब्रह्मदत्त विषयों में अति मूर्च्छित हो रहा है और इसीलिए वीतराग के धर्म में दीक्षित होने को वह दुःख रूप समझ रहा है फिर भी पूर्व भव के स्नेह से और हित बुद्धि से वह धर्मात्मा मुनि उसके लिए उपदेश करने में प्रवृत्त हुआ। इसमें मुनि का परहित कांक्षा और दृढ़तर धर्मनिष्ठा का जो शब्दचित्र सूत्रकार ने खींचा है वह वर्तमान के मुनिजनों के लिए अधिक मननीय है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org