Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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परीषह - उपसंहार
विवेचन - दर्शन अर्थात् सम्यग्दर्शन । एकान्त क्रियावादी आदि ३६३ वादियों के विचित्र निश्चल चित्त से सम्यग् दर्शन को धारण
मत को सुन कर भी सम्यक् रूप से सहन करना
करना, दर्शन परीषह - जय है अथवा दर्शन व्यामोह न होना दर्शन परीषह-सहन है। अथवा जिन या उनके द्वारा कथित जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, परभव आदि परोक्ष होने के कारण मिथ्या है ऐसा चिंतन नहीं करना दर्शन परीषह-सहन है।
समवायांग सूत्र एवं तत्त्वार्थ सूत्र में इस परीषह का नाम 'अदर्शन परीषह' दिया है। दोनों में मात्र शब्दों का अंतर है । भावार्थ में कुछ भी फर्क नहीं है।
उपसंहार
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एए परीसहा सव्वे, कासवेणं पवेइया ।
जे भिक्खू ण विहण्णिज्जा, पुट्ठो केणड़ कण्हुइ ॥ त्ति बेमि ॥ ४६ ॥
॥ दुइयं परिसहज्झयणं समत्तं ॥
कठिन शब्दार्थ - कासवेणं - काश्यप गोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने, पवेइयाप्ररूपण किया है, कण्हुइ - कहीं भी, केणइ - किसी भी, पुट्ठो - स्पृष्ट आक्रान्त होने पर, ण विहण्णिज्जा - पराजित न हो ।
भावार्थ ये सभी परीषह काश्यप गोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने फरमाये हैं, जिनके स्वरूप को जान कर धैर्यवान् साधु कहीं भी, इन परीषहों में से किसी भी परीषह के उपस्थित होने पर संयम से विचलित नहीं होवे ॥ ४६ ॥ ऐसा मैं कहता हूँ ॥
॥ इति परीषह नामक द्वितीय अध्ययन समाप्त ॥
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