Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र - ग्यारहवां अध्ययन
विवेचन चक्रवर्ती चौदह रत्नों का स्वामी होता है बे चौदह रत्न इस प्रकार हैं
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१. सेनापति २. गाथापति ३. बढ़ई ४. पुरोहित ५. स्त्री ६. अश्वे ७. गज ८. चक्र ६. छत्र १०. चर्म ११. दण्ड १२. खड्ग १३. मणि और १४. काकिणी ।
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९. इन्द्र की उपमा
जहा से सहस्सक्खे, वज्जपाणी पुरंदरे ।
सक्के देवाहिवई, एवं हवइ बहुस्सुए ॥ २३ ॥
कठिन शब्दार्थ - सहस्सक्खे - सहस्राक्ष हजार नेत्र वाला, वज्जपाणी - वज्रपाणि, पुरन्दरे - पुरन्दर, सक्के शक्र, देवाहिवई - देवाधिपति ।
भावार्थ - जिस प्रकार सहस्र ( हजार ) नेत्र वाला हाथ में वज्र धारण करने वाला, पुर नामक दैत्य या नगर का दारण करने वाला तथा देवों का स्वामी वह प्रसिद्ध शक्र (इन्द्र) शोभित होता है, इसी प्रकार बहुश्रुत साधु शोभित होता है । अर्थात् इन्द्र के समान बहुश्रुत भी विशिष्ट श्रुतज्ञान रूप सहस्र नेत्र वाला, हाथ में वज्र चिह्न वाला, विशिष्ट तप द्वारा पुर अर्थात् शरीर को कृश करने वाला पुरन्दर देवों का पूज्य होता है।
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१०. सूर्य की उपमा
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जहा से तिमिर - विद्धंसे, उच्चिट्टंते दिवायरे । जलते इव तेएण, एवं हवइ बहुस्सुए ॥ २४ ॥
कठिन शब्दार्थ - तिमिर विद्धंसे - अंधकार का विध्वंसक, उच्चिट्ठते - उदीयमान, दिवायरे - दिवाकर, जलंते - देदीप्यमान, तेएण - तेज से ।
भावार्थ - जिस प्रकार अन्धकार का नाश करने वाला उगता हुआ (आकाश में ऊपर की ओर चढ़ता हुआ ) दिवाकर (सूर्य) तेज से देदीप्यमान होता हुआ शोभित होता है इसी प्रकार आत्मज्ञान के तेज से दीप्त, बहुश्रुत ज्ञानी शोभित होता है ।
विवेचन - सहस्सक्खे सहस्राक्ष इन्द्र के पांच सौ देव मंत्री होते हैं। राजा मंत्री की आँखों से देखता है, अर्थात् इन्द्र उनकी दृष्टि से अपनी नीति निर्धारित करता है, इसलिए वह 'सहस्राक्ष' कहलाता है।
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