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हरिकेशीय - हरिकेशबल मुनि का उपदेश
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तप का माहात्म्य सक्खं खु दीसइ तवो विसेसो, ण दीसइ जाइविसेस कोई। सोवागपुत्तं हरिएस साहुं, जस्सेरिसा इहि महाणुभागा॥३७॥
कठिन शब्दार्थ - सक्खं - साक्षात्, दीसइ - दिखाई देता है, तवो विसेसो - तप का विशेष, जाइविसेस - जाति का विशेष, जस्स - जिसकी, एरिसा - इस प्रकार की, इडि - ऋद्धि, महाणुभागा - माहात्म्य। ___ भावार्थ - निश्चय ही साक्षात् तप का महात्म्य दिखाई देता है जाति की विशेषता कुछ भी दिखाई नहीं देती चांडाल के पुत्र हरिकेश मुनि को देखो जिनकी इस प्रकार की महाप्रभावशाली ऋद्धि है।
विवेचन - मुनि के तपोबल की प्रत्यक्ष महिमा को देख कर ब्राह्मण जाति का नहीं गुणों का महत्त्व समझ गये। .
जैन धर्म का उद्घोष है कि किसी भी वर्ण, जाति, देश, वेष या लिंग का व्यक्ति हो अगर वह रत्नत्रय (सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र) की निर्मल साधना करता है तो उसके लिए मोक्ष के द्वार खुले हैं। यही इस गाथा का आशय है। ___ हरिकेशबल मुनि का उपदेश
किं माहणा जोइ-समारभंता, उदएण-सोहिं बहिया विमग्गहा। जं मग्गहा बाहिरियं विसोहिं, ण तं सुदिटुं कुसला वयंति॥३८॥
कठिन शब्दार्थ - माहणा - ब्राह्मणों, जोइसमारंभता - अग्नि का समारंभ करते हुए, उदएण - जल से, सोहिं - शुद्धि को, बहिया - बाह्य (बाहर से) मग्गहा - खोजते हो, विसोहिं - विशुद्धि को, सुदिटुं - सुदृष्ट, कुसला - कुशल पुरुष, वयंति - कहते हैं।
भावार्थ - मुनि कहने लगे कि - हे ब्राह्मणो! आप अग्नि का आरम्भ करते हुए जल से बाह्य शुद्धि की क्यों खोज करते हो? अर्थात् आप लोग यज्ञ और स्नान से बाह्य शुद्धि क्यों चाहते हो? जो आप बाह्य विशुद्धि की खोज करते हो वह सुदृष्ट नहीं है अर्थात् महात्मा लोगों ने अपनी ज्ञान-दृष्टि में उसे अच्छा नहीं समझा है, ऐसा तत्त्व-ज्ञान में कुशल व्यक्ति कहते हैं।
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