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उत्तराध्ययन सूत्र - बारहवां अध्ययन *************kakakakakakakakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk
विवेचन - मुनि ने ब्राह्मणों को विनीत और उपशांत जान कर हितकारी उपदेश देते हुए कहा कि बाह्य शुद्धि से अंतरंग शुद्धि की इच्छा रखना भूल है।
कुसं च जूवं तण-कट्ठ-मग्गिं, सायं च पायं उदयं फुसंता। पाणाइ भूयाइ विहेडयंता, भुजो वि मंदा पगरेह पावं ॥३६॥
कठिन शब्दार्थ - कुसं - कुश (डाभ), जूवं - यूप-यज्ञस्तंभ, तण - तृण, कटुं - काष्ठ, अग्गिं - अग्नि, सायं - संध्या, पायं - प्रातःकाल, उदयं - जल को, फुसंता - स्पर्श करते हुए, पाणाइ- प्राणी, भूयाइ - भूतों का, विहेडयंता - विनाश करते हुए, भुजो - पुनः पुनः, मंदा - मंदबुद्धि, पगरेह - करते हो, पावं - पाप को।
भावार्थ - हे. मन्दबुद्धि वालो! कुश (डाभ), यज्ञ-स्तम्भ तृण, काष्ठ और अग्नि, इन्हें ग्रहण करते हुए तथा प्रातःकाल और संध्या समय पानी का स्पर्श करते हुए और प्राणी तथा भूतों की हिंसा करते हुए आपकी शुद्धि होना तो दूर रहा किन्तु और भी पाप का संचय करते . हो।
विवेचन - बाह्य यज्ञादि क्रियाओं से प्राण, भूत, जीव, सत्त्व का विनाश होने से जीव पाप कर्मों का संचय करता है।
यज्ञ विषयक जिज्ञासा कहं चरे भिक्खु वयं जयामो, पावाई कम्माइं पणुल्लयामो। अक्खाहि णे संजय! जक्ख-पूइया!, कहं सुजडं कुसला वयंति?॥४०॥
कठिन. शब्दार्थ - जयामो - यज्ञ करें, पावाई कम्माई - पापकर्मों को, पणुल्लयामोदूर करें, अक्खाहि - कहो, णे - हम को, जक्खपूइया - यक्ष पूजित।
भावार्थ - हे भिक्षुक! हम लोग किस प्रकार प्रवृत्ति करें और कैसे यज्ञ करें, जिससे कि पाप कर्मों को दूर कर सकें, हे यक्ष से पूजित! हे संयत (संयति)! हमें कहिये कि कुशल तत्त्वज्ञ पुरुष किस प्रकार सुन्दर यज्ञ का प्रतिपादन करते हैं।
विवेचन - इस गाथा में यज्ञ के वास्तविक स्वरूप को समझने के लिये ब्राह्मणों ने मुनि से प्रश्न किया है।
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