Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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हरिकेशीय - यक्ष और याज्ञिकों का संवाद
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खित्ताणि अम्हं विइयाणि लोए, जहिं पकिण्णा विरुहंति पुण्णा। जे माहणा जाइ-विजोववेया, ताई तु खिसाइं सुपेसलाइं॥१३॥
कठिन शब्दार्थ - खित्ताणि - क्षेत्र, अम्हं - हमने, विइयाणि - जान लिये हैं, लोएलोक में, जहिं - जहां, पकिण्णा - बोए हुए, विरुहंति - उग जाते हैं, पुण्णा - पूर्ण रूप से, जाइ - जाति, विजोववेया - विद्या से सम्पन्न, सुपेसलाई - मनोहर उत्तम।
भावार्थ - लोक में जहाँ दिये गये अन्नादि पुण्य उत्पन्न करते हैं, वे क्षेत्र अर्थात् दान के पात्र हमें मालूम हैं जो जाति और विद्या सम्पन्न ब्राह्मण हैं, वे क्षेत्र निश्चय ही उत्तम हैं।
विवेचन - यक्ष के कथन को सुन कर वे ब्राह्मण बोले - जो व्यक्ति जन्म से ब्राह्मण और वेदादि विद्याओं में निपुण हो वही परम सुंदर क्षेत्र है। अतः क्षुद्र कुलोत्पन्न पुण्य क्षेत्र नहीं हो सकते। .
कोहो य माणो य वहो य जेसिं, मोसं अदत्तं च परिग्गहं च। . ते माहणा जाइ-विजाविहूणा, ताई तु खित्ताई सुपावयाइं॥१४॥ ____ कठिन शब्दार्थ - वहो - वध (हिंसा), मोसं - झूठ (मृषा), अदत्तं - अदत्त (चोरी), परिग्गहं - परिग्रह, सुपावयाई - अतिशय पाप रूप।
भावार्थ - ब्राह्मणों की यह बात सुन कर यक्षाधिष्ठित मुनि ने कहा जिन लोगों में क्रोध और मान और माया तथा लोभ हैं और जिनके हिंसा, झूठ तथा चोरी और मैथुन तथा परिग्रह हैं, वे ब्राह्मण जाति और विद्या से हीन हैं और वे क्षेत्र निश्चय ही अतिशय पापकारी हैं। .... विवेचन - चार कषाय और पांच आसवों से जो निवृत्त है वही वास्तव में पुण्य क्षेत्र है इसके अतिरिक्त लौकिक शास्त्रों का वेत्ता भी हो तो भी यदि उसमें आसवों और कषायों की प्रधानता है तो वह पाप रूप क्षेत्र ही है।
तुब्भेत्थ भो! भारहरा गिराणं, अलु ण याणाह अहिज वेए। उच्चावयाई मुणिणो चरंति, ताई तु खित्ताई सुपेसलाइं॥१५॥
कठिन शब्दार्थ - तुम्भं - तुम, इत्य - इस लोक में, भारहरा - भार उठाने वाले, गिराणं - वेद रूप वाणी के, अटुं - अर्थ को, ण याणाह - नहीं जानते हो, अहिज - पढ़ कर, वेए - वेदों को, उच्चावयाइं - ऊंच नीच कुलों में, मुणिणो - मुनि, चरंति - विचरते
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