Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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हरिकेशीय - यक्ष और याज्ञिकों का संवाद
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१ से भी यह पूर्णतया स्पष्ट है - "देवा वि तं णमंसंति जस्स धम्मे सया मणो" ऐसे प्रसंग पर भी मुनि का मौन रहना उनकी आक्रोश परीषहँ पर पूर्ण विजयशीलता का परिचायक है। .. . यक्ष और याज्ञिकों का संवाद . . समणो अहं संजओ बंभयारी, विरओ धण-पयण-परिग्गहाओ। परप्पवित्तस्स उ भिक्ख-काले, अण्णस्स अट्ठा इहमागओ मि॥६॥
कठिन शब्दार्थ - समणो - श्रमण, अहं - मैं, संजओ - संयत, बंभयारी - ब्रह्मचारी, विरओ- विरत (निवृत्त), धण - धन, पयण - पचन-अन्न के पकाने से, परिग्गहाओपरिग्रह से, परप्पवित्तस्स - दूसरों के लिए निष्पन्न, भिक्खकाले - भिक्षा के समय, अण्णस्सअन्न (आहार) के, अट्ठा - लिए, इहमागओ - यहाँ आया हूँ। ..
भावार्थ - मैं, श्रमण तपस्वी, संयति और ब्रह्मचारी हूँ तथा धन, भोजन पकाने और परिग्रह से निवृत्त हुआ हूँ, अतएव भिक्षा के समय दूसरों द्वारा उनके लिए बनाये हुए अन्न के लिए यहाँ आया हूँ।
विवचेन - प्रस्तुत गाथा में यक्ष ने मुनि के शरीर में प्रवेश कर ब्राह्मणों के दो प्रश्नों-१. तू कौन है? और २. तू किस लिये यहाँ पर आया है? का उत्तर दिया है।
वियरजइ खजइ भुजइ य, अण्णं पभूयं भवयाणमेयं ।
जाणाहि मे जायण-जीविणुत्ति, सेसावसेसं लहओ तवस्सी॥१०॥ - कठिन शब्दार्थ - वियरजइ - वितीर्ण किया जाता है, खजइ - खाया जाता है, भुजइ - भोगा जाता है, पभूयं - प्रभूत (प्रचुर), भवयाणं - आपके यहाँ, जाणाहि - जानते हो, जायण - याचना से, जीविणु - जीवन है, सेस - शेष, अवसेसं - अवशेष (बचे हुए), लहओ - मिल जाए।
भावार्थ - आप लोगों का यह बहुतसा अन्न दीन-अनाथजनों को बांटा जा रहा है, खाया जा रहा है और भोगा जा रहा है। मैं भिक्षावृत्ति से आजीविका करने वाला हूँ ऐसा जान कर मुझ तपस्वी को बचा हुआ (अन्तप्रान्त) आहार देकर लाभ प्राप्त करो।
उवक्खडं भोयण माहणाणं, अत्तट्ठियं सिद्ध-मिहेगपक्खं। ण उ वयं एरिसमण्णपाणं, दाहामु तुझं किमिहं ठिओ सि?॥११॥
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