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उत्तराध्ययन सूत्र - नौवां अध्ययन
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भाव उमड़ पड़ा। विशुद्ध भावधारा से उन्हें जाति स्मरण ज्ञान हो गया। वे अपने पूर्व जन्म को हस्तामलकवत् देखने लग गये। बढ़ते हुए अंतरंग वैराग्य से उन्होंने शीघ्र ही राज्य सम्पदा और परिवार आदि का त्याग कर दीक्षित होने का निर्णय कर लिया ।
मिराज के दीक्षित होने का ज्ञान जब स्वर्ग के अधिपति देवेन्द्र को हुआ तो वह एक ब्राह्मण का रूप बना कर देखने के लिए आया कि नमिराज का यह वैराग्य क्षणिक आवेगमय है या चिर स्थायी ? इन्द्र और नमिराज के बीच जो प्रश्नोत्तर हुए उसका वर्णन सूत्रकार इन गाथाओं में कर रहे हैं
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चइऊण देवलोगाओ, उववण्णो माणुसम्मि लोगम्मि। उवसंतमोहणिज्जो, सरइ पोराणियं जाई ॥ १ ॥
उत्पन्न
कठिन शब्दार्थ - चइऊण चव कर, देवलोगाओ - देव लोक से, उववण्णो हुआ, माणुसम्म मनुष्य, लोगम्मि - लोक में, उवसंत मोहणिज्जो - जिसका मोहनीय कर्म उपशांत हो गया है, सरइ स्मरण करता है, पोराणियं - पूर्व, जाई - जाति को । भावार्थ - जिसके चारित्र - मोहनीय कर्म ( कषाय वेदमोहनीय आदि) उपशांत हो गया है ऐसे नमिराज का जीव सातवें देवलोक से चव कर मनुष्य-लोक में उत्पन्न हुआ और जातिस्मरण ज्ञान द्वारा पहले के जन्म का स्मरण करने लगा ।
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विवेचन मिराज का जीव सातवें देवलोक से च्यव कर यहाँ आया है। एक समय चिन्तन मनन करते हुए उनको जातिस्मरण पैदा हुआ। जिससे वे अपने पूर्वभवों को देखने लगे । जातिस्मरण, मतिज्ञान का भेद हैं। सम्यग्दृष्टि की मति मतिज्ञान कहलाता है तथा मिथ्यादृष्टि की मति, मतिअज्ञान कहलाता है । इसी प्रकार जातिस्मरण के भी दो भेद हैं। सम्यग्दृष्टि का - जातिस्मरण 'जातिस्मरण ज्ञान' कहलाता है। मिथ्यादृष्टि का जातिस्मरण 'जातिस्मरण अज्ञान' कहलाता है। इस प्रकार जातिस्मरण सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों को हो सकता है। ये दोनों मतिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से पैदा होते हैं। इस पर यह प्रश्न पैदा होता है कि इस गाथा में "उवसंत मोहणिज्जो" यह शब्द दिया है तो जातिस्मरण का मोहनीय से क्या सम्बन्ध है? इसका समाधान यह है कि
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यहाँ “उवसंतमोहणिज्जो " शब्द का अर्थ जिसके चारित्र मोहनीय कर्म ( कषाय एवं वेद मोहनीय आदि) उपशांत (मन्द) हो गया है - ऐसे नमिराज का जीव करना उचित है। यहाँ पर प्रयुक्त 'उवसंतमोहणिज्जो' शब्द में 'उवसंत' शब्द 'औपशमिक' अर्थ में नहीं होकर 'मन्दता'
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