Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
१५८
उत्तराध्ययन सूत्र - दसवां अध्ययन ***********************************************************
संसार में बहुत अधिक संख्या सोपक्रमी आयु वाले जीवों की है, निरुपक्रमी आयु वाले जीव तो बहुत थोड़े हैं। सोपक्रम आयु वाले जीवों को लक्ष्य में रख कर प्रभु फरमाते हैं कि हे गौतम! आयु बहुत अल्प है उसमें भी अनेक प्रकार के विघ्न हैं यानी आयु को बीच में ही तोड़ देने वाले अनेकविध आतंक (भयानक रोग) शस्त्र, जल, अग्नि, विष, भय और शोक आदि अनेक विघ्न विद्यमान है। पता नहीं किस समय इन उपद्रवों के द्वारा इस जीवन का अंत हो जावे अतः बुद्धिमान् पुरुष को समय मात्र का भी प्रमाद नहीं करना चाहिये तभी वह अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त कर सकेगा, अन्यथा नहीं।
मनुष्य जन्म की दुर्लभता दुल्लहे खलु माणुसे भवे, चिरकालेण वि सव्वपाणिणं। गाढा य विवाग कम्मुणो, समयं गोयम! मा पमायए॥४॥
कठिन शब्दार्थ - दुल्लहे - दुर्लभ, माणुसे भवे - मनुष्यभव, चिरकालेण - चिरकाल में, . सव्वपाणिणं - सभी प्राणियों को, गाढा - प्रगाढ, विवाग - विपाक, कम्मुणो - कर्मों का।::
भावार्थ - सुदीर्घ काल में भी, सभी प्राणियों के लिए, मनुष्य का भव प्राप्त होना निश्चय ही दुर्लभ है क्योंकि, मनुष्य गति के घातक कर्मों के विपाक अत्यन्त दृढ़ होते हैं, उनका नाश होना सहज नहीं है। अतएव हे गौतम! समय मात्र भी प्रमाद मत कर। __विवेचन - प्रभु फरमाते हैं कि जिन आत्माओं ने सुकृत का उपार्जन नहीं किया उन्हें चिरकाल तक भी मनुष्य जन्म का प्राप्त होना अत्यंत कठिन है। __ तीव्र कषाय के उदय से कर्मों का इतना गाढ बंध हो जाता है कि जीव मानव भव को प्राप्त नहीं कर पाता है किन्तु पुण्य विशेष के उदय से यह मनुष्य जन्म मिल गया है अतः इसको प्राप्त करके धर्माराधन में समय मात्र का भी प्रमाद करना योग्य नहीं है।
पृथ्वीकायिक जीवों की कायस्थिति पुढवीकायमइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे। कालं संखाईयं, समयं गोयम! मा पमायए॥५॥
कठिन शब्दार्थ - पुढवीकार्य - पृथ्वीकाय में, अइगओ - गया हुआ, उक्कोसं - उत्कृष्ट, संवसे - रहता है, कालं - काल, संखाईयं - संख्यातीत-असंख्य।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org