Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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द्रुमपत्रक - आयु की अस्थिरता
१५७ kattrikaartiktatakartattattitutiktikartaarkatrkattatrakaratmak हो कर) भूमितल में पैरों से मसले जा रहे हैं। यह दशा संसार के प्रत्येक पदार्थ की है। कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है ऐसा सोच कर मनुष्य को अपने स्वल्प जीवन में अपने कर्तव्यों में किंचित् भी प्रमाद नहीं करना चाहिए।
आयु की अस्थिरता कुसग्गे जह ओस-बिंदुए, थोवं चिट्टइ लंबमाणए। एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम! मा पमायए॥२॥
कठिन शब्दार्थ - कुसग्गे - कुश के अग्र भाग पर, जह - जैसे, ओस-बिंदुए - ओस की बिन्दु, थोवं - थोड़े काल, चिट्ठइ - ठहरती है, लंबमाणए - लटकती हुई।
भावार्थ - जिस प्रकार कुश (घास) के अग्र भाग पर लटकती हुई वायु से प्रेरित होती हुई ओस की बूंद थोड़े समय तक ठहरती है और फिर नीचे गिर पड़ती है। इसी प्रकार मनुष्यों का जीवन भी अस्थिर है न मालूम कब समाप्त हो जाय। अतएव हे गौतम! समय मात्र भी प्रमाद मत कर। ..
विवेचन - कुश के अग्रभाग पर टिकी हुई ओस बिन्दु के समान क्षण मात्र स्थायी यह मनुष्य जीवन है अतः बुद्धिमान् पुरुष को धर्मानुष्ठान में क्षण मात्र भी प्रमाद नहीं करना चाहिये।
इइ इत्तरियम्मि आउए, जीवियए बहुपच्चवायए। विहुणाहि रयं पुराकडं, समयं गोयम! मा पमायए॥३॥
कठिन शब्दार्थ - इत्तरियम्मि - अल्प कालीन, आउए - आयु में, जीवियए - जीवन, बहु - अनेक, पच्चवायए - विघ्नों से परिपूर्ण, विहुणाहि - दूर कर, रयं - कर्म रज को, पुराकडं - पूर्व कृत संचित।
- भावार्थ - इस प्रकार थोड़े काल की आयु वाले और उसमें भी अनेकों विघ्न वाले जीवन में पूर्वकृत कर्म रज को आत्मा से दूर करो। अतएव हे गौतम! समय मात्र भी प्रमाद मत कर। - विवेचन - जीवों की आयु दो प्रकार की कही गई है -
१. सोपक्रम आयु - जो किसी बाह्य निमित्त के मिलने से अपनी नियत मर्यादा को पूर्ण किए बिना बीच में ही टूट जावे, उसे व्यवहार नय की अपेक्षा सोपक्रम आयु कहते हैं। - २. निरुपक्रम आयु - जो किसी प्रकार के निमित्त से न टूटे किन्तु अपनी नियत मर्यादा को पूर्ण करके ही समाप्त हो, वह निरुपक्रम आयु है।
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