Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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द्रुमपन्नक - श्रद्धा की दुर्लभता
धर्म श्ववण की दुर्लभता अहीण पंचिंदियत्तं वि से लहे, उत्तम धम्मसुई हु दुल्लहा। कुतित्थिणिसेवए जणे, समयं गोयम! मा पमायए॥१८॥
कठिन शब्दार्थ - उत्तम धम्मसुई - उत्तम धर्म की श्रुति, कुतित्थिणिसेवए - कुतीर्थ के सेवन करने वाले, जणे - जन।
भावार्थ - इस आत्मा को पूर्ण पांच इन्द्रियाँ भी प्राप्त हो जाय, फिर भी श्रुत चारित्र रूप उत्तम धर्म का श्रवण निश्चय ही दुर्लभ है, क्योंकि बहुत से लोग कुतीर्थियों की सेवा करने वाले हैं और उन्हें उत्तम धर्म को श्रवण करने का सुयोग ही प्राप्त नहीं होता। अतएव हे गौतम! एक समय का भी प्रमाद मत कर। - विवेचन - जो नास्तिक मत वाला अर्थात् जो आत्मा के अस्तित्त्व को स्वीकार नहीं करता अथवा विषय वासना के पोषण मात्र का उपदेष्टा हो तथा कुदेव, कुगुरु और कुधर्म की आराधना में तल्लीन हो, उसे 'कुतीर्थ' कहते हैं अथवा ३६३ पाषण्ड मत भी कुतीर्थ कहे जाते हैं। कुतीर्थ की सेवा करने वाले संसार में अधिक देखे जाते हैं। .
कुतीर्थ की सेवा से यह जीव उत्तम धर्म की प्राप्ति से वंचित रह जाता है और विषय वासना में लिप्त हो कर फिर से जन्म-मरण रूप संसार में परिभ्रमण करने लग जाता है अतः विवेकी पुरुष को धर्म में सदैव सावधान रहना चाहिये।
.... श्रद्धा की दुर्लभता लखूण वि उत्तमं सुई, सद्दहणा पुणरावि दुल्लहा। मिच्छत्त णिसेवए जणे, समयं गोयम! मा पमायए॥१६॥
कठिन शब्दार्थ - सद्दहणा - तत्त्व श्रद्धा, मिच्छत्त - मिथ्यात्व का, णिसेवए - सेवन करने वाले।
भावार्थ - उत्तम धर्म का श्रवण प्राप्त कर के भी उस पर श्रद्धा (रुचि होना) और भी कठिन है, क्योंकि अनादिकालीन अभ्यास वश, मिथ्यात्व का सेवन करने वाले बहुत से मनुष्य दिखाई देते हैं। अतएव हे गौतम! एक समय का भी प्रमाद मत कर।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा का भाव यह है कि अनादिकाल की मिथ्यात्व वासना के कारण
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